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पहुंचकर जीवात्मा अपनी अपूर्व शक्ति का प्रस्फुटन करके क्षपक श्रेणि पर आरूढ होती है । आठवें से आगे बढकर नौंवे गुणस्थानक पर तीनों ही वेद, हास्यादिषट्क
और संज्वलन क्रोध, मान और माया इन बारह कर्मप्रकृतियों का क्षय करती है । आत्मा इस तरह अपने आप को विशुध्द करती हुई अपनी विकास यात्रा में अधिकतम विशुध्द होने के लिये नौंवे से आगे बढ कर १०वे सूक्ष्म संपराय गुणस्थानक पर पहुँचकर सूक्ष्मलोभ का क्षय करती है। वहां से सीधे ही १२ वे गुणस्थानक पर पहुंचती है । ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय तथा अंतराय कर्म की शेष रही हुई कर्मप्रकृतियों का क्षय करती है । मोहनीय कर्म सर्वथा नष्ट हो जाने से विषय-कषाय लेशमात्र भी अब न रहने से आत्मा वीतराग अवस्था प्राप्त करती है। वीतरागता ही प्रथम उपलब्धि है।
बारहवे गुणस्थानक के अंत में और तेरहवे सयोगी केवली गुणस्थानक पर पहुंचने के काल में जीव अनंत, अनुपम वस्तुविषयक केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करता है । शुक्ल ध्यान के चार प्रकारों में ध्याता दूसरे प्रकार का शुक्लध्यान पूर्ण करके आगे बढ़ता है तब उसे केवलज्ञान की प्राप्ती हो जाती है | चारों ही घातिकर्मों में से सर्वप्रथम मोहनीय कर्म का सर्वथा-संपूर्ण क्षय होने पर वीतरागता प्राप्त हो जाती है, फिर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्म का भी सर्वथा क्षयनाश हो जाता है, तब केवलज्ञान-केवलदर्शन तथा अनंतवीर्य शक्ति का प्रकटीकरण होता है । कुल. आठ कर्म है । उन में से चार घाति कर्मों का क्षय होने से जीव केवली बनता है और शेष चार अघाति कर्मों का क्षय अर्थात् आठों ही कर्मों का क्षय हो जाने पर मोक्ष- सिध्दत्व की प्राप्ति होती है, और आत्मा सिध्ध-बुध्ध-मुक्त हो जाती
तीर्थकर नामकर्म का रसोदयः
प्रभु जब चारों ही घनघाति कर्मों का क्षय कर देते हैं, तब पूर्व के तीसरे भव में उपार्जित तीर्थंकर नाम कर्म पूर्ण रुप से रसोदय से उदय में आता है। यदि यह तीर्थंकर नामकर्म पूर्वोपार्जित न हो और यदि चारों ही घाति कर्मों का क्षय हो जाय तो जीव सामान्य केवली बन सकता है परन्तु अरिहंत, तीर्थंकर नहीं बन सकता है। तीर्थंकर बनने के लिये तो पूर्व के तीसरे भव से ही तीर्थंकर नामकर्म बंधा हुआ सत्ता में होना ही चाहिये - यह नितान्त आवश्यक है तब आज उसका उदय संभव है, और तीर्थंकर नामकर्म के उदय से ही आत्मा तीर्थंकर स्वरुप में-पहचानी जाती
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