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भव में सर्वस्व का त्याग करके दीक्षा ग्रहण कर साधु बने थे, उस समय बीस स्थानकों में से एक पद की सविशेष उत्तम आराधना करके उन्होंने जिननाम कर्म का उपार्जन किया था और वहाँ से स्वर्ग सिधारकर १० वे भव में भमवान पार्श्वनाथ बनकर वे मोक्ष में पधारे थे ।
___ इस प्रकार वर्तमान चौबीसी के २४ तीर्थंकर भगवंतो में से प्रत्येक तीर्थंकरने अपने पूर्व के तीसरे भव में बीस स्थानक पद की आराधना करके तीर्थंकर नाम कर्म बाँधा था और फिर अन्तिम भव में तीर्थंकर बनकर वे मोक्ष में सिधारे थे । इन में से प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव के जीव ने और अन्तिम श्री महावीर स्वामी भगवान के जीव ने दोनों ने बीसों ही बीस पदों की आराधना करके तीर्थंकर नाम कर्म उजित किया था, जब कि अन्य सभी तीर्थंकर भगवंतो ने बीस स्थानकों में से एक - एक पद की आराधना करके तीर्थंकर पद की प्राप्ति की थी।
सर्व जीवों के कल्याण की भावना :
तीर्थंकर नामकर्म बाँधने के लिये बाह्य स्वरुप से बीस स्थानक की भक्ति, आराधना, तपश्चर्या आदि का जितना महत्व है, उतना ही महत्व आभ्यंतर भावना की कक्षा पर सर्वजीवों के कल्याण की भावना का भी है । शीरा (हलुए) में आटे के साथ घी, शक्कर का भी इतना ही महत्व है । यह एक प्रकार की उदात्त भावना है, जिस में जगत के सर्व जीवों के कल्याण की कामना की जाती है । इसे भावदया का स्वरुप दिया गया हैं । जो होवे मुज शक्ति इसी .... तीर्थंकर नाम कर्म बाँधने वाली आत्मा इस समय इस प्रकार चिन्तन करती है, आत्मा के भावों को प्रबल कोटि के बनाती है और भावना भावित करती है कि यदि मुझे ऐसी प्रबल शक्ति प्राप्त हो तो मैं 'सवि जीव करूँ शासन रसी' जगत के सभी जीवों को जिनेश्वर शासन के रसिक बना दूं, सभी को अधर्मी में से धर्मी बना दूं, सभी को पाप करने से रोककर, पुण्योपार्जन करते हुए बना दूँ, दुःख भोगने वाले सभी को सुख प्राप्ति का मार्ग बता दूं, इस संसार में कोई भी पापाचरण न करे, न कोई दुःखी हो, सबका कल्याण हो... सभी प्रभु शासन की प्राप्ति करे... मैं सभी को प्रभु शासन प्राप्त करवाउँ - ऐसी प्रबल शक्ति मुझे प्राप्त हो तो सुंदर...
ऐसी उत्कट उदात्त कक्षा की भावना भावित करते करते पवित्र शुभ अध्यवसाय में वे तीर्थंकर नाम कर्म बाँधते है । 'शुचिरस ढलते तिंहा बांधता...
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