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मनुष्य १,३,५,६,८,१० १२,१४,१६,१८ २२,२३,२५,२७
देव २,४,७,९,११,१३, १५,१७,२४,२६
२० तिर्यंचगति
नरक गति १९,२१
इस प्रकार भगवान महावीर प्रभुने १४ भव मनुष्य गति में किये, १० भव देव गति में किये, १ बार २० वे भव में तिर्यंच गति में सिंह के रुप में उत्पन्न हुए, वहाँ से पुनः नरक गति में गये १९वा भव सातवी नरक में और २१ वा भव चौथी नरक में - इस प्रकार नरक गति में २ भव किये । ऐसे कुल २७ भव करके अन्तिम सत्ताईसवे भव में भगवान महावीर बनकर मोक्ष में पधारे । मोक्षगमन तक उन्हें इतना घूमना पड़ा । वे चारों ही गतिओं में गए । सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् भी उन्हें चारों ही गतिओं में जाना पड़ा और २७ भव करने पड़े परन्तु अंतिम २७ वे भव में भी उन्होंने सब कुछ साध लिया और वे मुक्तिपुरी के निवासी बने ।
तीर्थंकर बनने की प्रक्रिया :
वीश स्थानक विधिए तप करी, ऐसी भावदया दिलमां धरी। . जो होवे मुझ शक्ति इसी, सवि जीव करुं शासन रसी ॥ शुचिरस ढलते तिहां बांधता, तीर्थंकर नाम निकाचता ॥
स्नात्र पूजा की ढाल में पूज्य वीरविजयजी महाराज उपरोक्त पंक्तियों में बताते हैं कि जीव सम्यक्त्व प्राप्त करके आगे बढ़ता है और वीशस्थानक की आराधना करता है । साथ ही मन में जगत के सर्व जीवों के कल्याण की भाव दया का चिन्तन करता है और उसके आधार पर तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करता है। ये बीस स्थानक पद निम्न प्रकार हैं :
श्री बीसस्थानक यंत्र बीस स्थानक के २० पद : (१) अरिहंत पद (२) सिद्ध पद (३) प्रवचन पद
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