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शीघ्र मुक्त होकर सिद्ध बन जाएँगे ।
तीर्थंकर बनने की दिशा में प्रयाण :
समकित गुणठाणे परिणम्या, वली व्रतधरसंयम सुख रम्या'
आत्म विकास के १४ गुणस्थान बताए गए हैं । इन १४ गुणस्थानों में प्रथम मिथ्यात्व के गुणस्थान से जीव सीधा ही चौथे गुणस्थान पर आता है और सम्यक्त्व प्राप्त करता है । सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् क्रमशः एक एक गुणस्थान पर आगे प्रगति करता जाता है । सम्यक्त्व प्राप्त करने के पश्चात् मोक्षगमन तक जीव अपने पुण्य-पाप के आधार पर चारों ही गतिओं में जन्म-मरण धारण करते हैं । कोई न्यूनाधिक गति में भी जाते है । (१) भगवान ऋषभदेव धन सार्थवाह के प्रथम भव में सम्यक्त्व पाते हैं, फिर उत्तरोतर देव और मनुष्य, मनुष्य
और पुनः देव, फिर पुन : मनुष्य इस प्रकार मात्र देव-मनुष्य की दो ही गतियों में जन्म धारण करते हैं और १३वे भव में ऋषभदेव-आदिनाथ बनकर मोक्षे में पधारते हैं।
(२) भगवान नेमिनाथ भी अपनी ९ भव की परम्परा में देव-एवं मनुष्य की मात्र दो ही गतियों में जन्म धारण करते हैं और नौवे भव में नेमिनाथ भगवान बनकर मोक्षगमन करते हैं ।
(३) भगवान पार्श्वनाथ का जीव प्रथम मुरुभूति के भव में सम्यक्त्व प्राप्त करता है और क्रमशः आगे बढ़ता है । कर्म संयोगवश मरुभूति का जीव मृत्यु पाकर दूसरे भव में हाथी बनता है । उन्होंने अपनी भव परम्परा में एक भव तिर्यंच गति में किया और शेष भव देव-मानव गति में किए । इस प्रकार कुल ३ गतियों में भव किये और अंत में १० वे भव में भगवान पार्श्वनाथ बनकर मोक्ष सिधारे ।
(४) भगवान महावीर का जीव प्रथम नयसार के भव में मुनि महात्मा को आहारदान करके शुद्ध श्रद्धा के योग से सम्यक्त्व पाता है और फिर आगे बढ़ता है । भगवान महावीर का जीव अपनी भव परम्परा में अनेक उतार-चढ़ाव देखता है । वह चारों ही गतिओं में जाता है और जन्म-मरण धारण करता है । चारों ही गतिओं में उनके जन्म -
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