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हो गए हैं, क्योंकि सम्पूर्ण देहमें रहा हुआ लाल रक्त भी श्वेत दुग्ध जैसा बन चुका हैं । व्यक्ति को जब क्रोध चढ़ता है, तब उसकी आँखे लाल हो जाती है, जब कि भगवान के शरीर के रक्तमें से लालिमा ही चली गई और उनका रक्त दूध जैसा श्वेत - शुद्ध हो गया अर्थात् महावीर सर्वथा राग-द्वेष रहित बन गए हैं । उन्होंने एक - एक आंतर शत्रुओं का हनन किया तो वह सवर्था संपूर्ण रुप से किया है | ऐसी देह-स्थिति कर डालने के पश्चात् भले ही चंड कौशिक जैसा विषैला सर्व डंक मारे तो भी क्या ? साँप काटे और प्रभु के चरण में से लाल - लाल रक्त के बजाय सफेद दूध जैसा खून निकले तो इसमें आश्चार्य ही क्या है ? आश्चर्यचकित होने की जरा भी आवश्यकता ही नहीं है । ऊपर से सब कुछ सुसंगत - न्याय संगत - सच्चा लगता है, अतः इसमें शंका करने का अब कोई प्रश्न ही नहीं रहता ।
दूसरों को मारकर महान् नहीं बना जाता :
क्या भगवान बनने के लिये यह आवश्यक है कि किसी की हत्या की जाए - किसी को मारा जाए ? क्या मारकर ही महान बनना संभव है ? क्या रावण को मारने से ही राम की भगवता उत्पन्न हुई ? क्या कंस का वध करने पर ही कृष्ण भगवान कहलाए ? क्या तृतीय नेत्र खोलकर नटराज के स्वरुप में सृष्टि का प्रलय करे और सभी जीव समाप्त हो जाएँ, तभी त्रिनेत्र शंकर भगवान की सत्यता सिद्ध होगी ? ऐसा क्यों ? यदि इस प्रकार दूसरों की हत्या करके भगवान बनना शक्य हो, तब तो नित्य सैंकड़ो भगवान बनते ही जाएँ, क्यों कि खून करना - हत्या करना तो आजकल आम बात हो चुकी हैं ।
जरा सोचो ! कि मारना अच्छा है या समता में मरना अच्छा है ? मारने से महान बना जाता है या समाधि में मरने से महान बना जाता है ? मारने वाला - हत्यारा महान् कहलाता है या मरने वाला महान् कहलाता है ? इन सभी पेचीदा प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट ही है कि हिंसा करने जाओगे तो वृत्तियाँ हिंसक बनेंगी, नियत बिगड़ेगी, कषाय जागृत होंगे, शस्त्र उठाकर उपयोग करना पड़ेगा, क्रूरता पैदा होगी । इन सभी में कषाय क्रूरता, शस्त्रादि मारनेवाले को महान् कैसे बना सकेंगे? संभव ही नहीं है । कदाचित् यहाँ मरने वाला व्यक्ति स्वयं विचार करे कि मैं तो वैसे भी मर ही रहा हूँ, तो यदी मैं समता धारण करलूं, समाधि भाव में स्थिर हो जाउँ मेरा तो कल्याण हो जाय । मारने वाले को मारने का पाप लगे परन्तु वह मरने वाला तो अपनी मति और गति दोनों ही सुधार कर आत्म
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