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________________ विश्व को ब्रह्मांड के स्वरुप में तो अनंत कहा है । अनंतगुना क्षेत्र विश्व का है, तो क्या ईश्वर का शरीर भी अनंतगुना विशाल मानें ? यदि हां कहते हो तो इतने विशाल शरीर की रचना कैसे संभव हो सकती है ? तब तो विशाल ब्रह्मांड को बनाने में ईश्वर को जितना समय लगा, उतना ही समय अपने विशाल काय शरीर को बनाने में भी लगा होगा ? और इतना विशाल शरीर हो तो वह दृश्य है या अद्दश्य है ? रुपी है या अरुपी है ? मूर्त है या अमूर्त है ? क्या हमारे शरीर जैसा द्दश्य शरीर है या भूत-प्रेतादि के अदृश्य शरीर जैसा उसका शरीर भी अद्दश्य है? यदि भूत-प्रेतादि की उपमा देते हो तो क्या अन्य भूत-प्रेतादि इतने ही व्यापक - विश्व व्यापी थे ? या वर्तमान में भी होते हैं ? क्या समझा जाए ? और इतने विराट शरीर को मानते हो तो वह शरीर किसका बना हुआ माने ? किन द्रव्यों का माने ? यदि किन्ही द्रव्यों से निर्मित मानते हो तो उन द्रव्यों को ईश्वर ने बनाया या किसी अन्यने बनाया था ? इतने बड़े व्यापक शरीर को बनाने में कितने द्रव्य उपयोग में लिये गए होंगे ? यदि विश्व तुल्य व्यापक शरीर को बनाने में पृथ्वीपानी-अग्नि-वायु-आकाशादि सभी द्रव्य उपयोग में आए हो तो विश्व बनाने के लिये या पृथ्वी-समुद्रादि अन्य सभी पदार्थ बनाने के लिये शेष क्या बचा ? और यदि शेष बचे तो वे कहाँ से आए ? तब फिर शरीर से व्यतिरिक्त भी इन अन्य पदार्थों की सत्ता कहाँ माने ? ईश्वर का शरीर ईश्वर निर्मित ही माने ? या अन्य ईश्वर द्वारा निर्मित माने? अथवा क्या हमारी तरह गर्भज शरीर माता पितादि द्वारा निर्मित मानें ? क्या किया जाय ? यदि माता-पिता थे तो ईश्वर होने से पूर्व उनके माता-पिता थे यह बात स्वीकार करनी पड़ती है और इस प्रकार तो उनके भी माता-पिता, उनके भी, उनके भी.. इस प्रकार अनंत माता-पिता स्वीकार करेंगे तो अनवस्था - अव्यवस्था दोष लग जाएगा । फिर गर्भज शरीर तो हमारे जैसे होते हैं । विराट विश्व के ... समान व्यापक कैसे हो सकते हैं ? इच्छा या सामर्थ्य से ईश्वर की व्यापकता कैसे स्वीकार करें ? इसका अर्थ तो यह हुआ कि ईश्वर सर्व व्यापी नहीं - बल्कि इच्छा को सर्व व्यापी मानें ? तो यह पक्ष भी निर्दोष सिद्ध नहीं होता है, क्यों कि इच्छा मन से उत्पन्न होती है और मन प्रदेश तक ही सीमित रहती है । मन से बाहर इच्छा जाती ही नहीं है । यदि इच्छा मन से बाहर जाती होती, तब तो इस जगत के अन्य जीवों को हमारी इच्छा का पता चलता होता, परन्तु हमारी इच्छा का किसी को भी पता नहीं लगता है। 286
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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