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की इच्छा होना ? तो बाद में होने में ईश्वर का ईश्वरत्व कहाँ रहा ? इसमें तो ईश्वर के सामर्थ्य का हनन हो जाता है और ईश्वर इच्छा प्रथम कारण के रूप में सिद्ध नहीं होगी । यदि प्रथमं पक्ष स्वीकार करते हैं तो ईश्वर में पहले इच्छाएँ जन्म लेती हैं और फिर तदनुसार जगत में कार्य होता हैं । तो यह बात भी ठीक नहीं उतरती, क्योंकि ईश्वर में एक साथ और एक ही समय परस्पर विपरीत ऐसी अनंत इच्छाएँ कैसे संभव हो सकती हैं ? कैसे उत्पन्न होती हैं ? क्या एक ही समय में ज्ञान के भी दो-चार सौ - हजार - लाख अथवा अनंत उपयोग संभव हो सकते हैं ? नहीं। एक समय एक ही उपयोग होता है । एक समय में एक साथ दो उपयोग संभव ही नहीं, होते भी नहीं, तो फिर एक ही समय एक साथ अनंत और वे भी परस्पर विपरीत इच्छाओं की बात को कैसे मानें ? यह बात संभव ही नहीं है । अतः ईश्वर में ऐसी असंभावनाएँ बलात् क्यों बिठाई जाएँ ?
कर्माधीन जगत स्वीकार करो :
ईश्वर में ये सभी अनंत इच्छाएँ एक साथ है या नहीं ? होती है या नहीं ? परन्तु जगत में अनंत जीवों की सुख दुःख की प्रवृत्तियाँ देखकर हम अनुमान से मान लेते हैं कि ईश्वर में इस विषय की इतनी इच्छाएं हुई। तो पुनः जगत के कार्य देखकर हम अनुमान से मान लेते हैं कि ईश्वर में इस विषय की इतनी इच्छाएँ हुई। तो पुनः जगत के कार्य देखकर ईश्वर में इच्छा की सत्ता माननी पडे । यह पक्ष स्वीकार करते हैं तो ईश्वरेच्छानुसार ही सब होता है - यह मत उड़ जाता है ।
इस प्रकार द्रविड प्राणायाम करने पर भी यदि दोष रह जाते हैं तो फिर ऐसे दोषयुक्त ईश्वरेच्छा के पक्ष को मानने की आवश्यकता ही कहाँ रहती है ? इसके स्थान पर तो कर्म सत्ता को ही स्वीकार कर लें तो कितना सरल और सीधा पड़े? कर्म सत्ता को स्वीकार न करें तो ईश्वर को एक मात्र इच्छा करने वाला खिलौना या मशीन ही मानना पड़े ? बस, ईश्वर अर्थात् इच्छा और इच्छा अर्थात् ईश्वर, ऐसे दोनों पर्यायवाची नाम देकर एक ही मानना पड़ेगा और इस प्रकार यदि दोनों को एक ही स्वरूप में, अथवा एक दूसरे के पूरक मान लेंगे तो अन्य सभी जीवों में ईश्वर की आपत्ति आएगी, क्यों कि जहाँ जहाँ इश्वर वहाँ वहाँ इच्छा स्वीकार करें या जहाँ जहाँ इच्छा वहाँ वहाँ ईश्वर । दोनों में से किसे स्वीकार करें ? जहाँ जहाँ इच्छा वहाँ वहाँ ईश्वर - इस पक्ष को स्वीकार करते हैं तो अन्य जो अनंत जीव हैं और उन सभी में इच्छा हैं तब तो उन सभी जीवों को ईश्वर ही मानना पड़ेगा ।
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