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सम्यग् श्रद्धा की ही विकृति है। और कुछ नहीं है। लेकिन ऐसी गलत परंपरा रूढ होकर सदीयों तक चलती ही रही और जीवों में घर करती ही गई तो क्या परिणाम आएगा?
__ आखिर यह सच्चा - सत्य तो ढूंढना ही पड़ेगा कि ईश्वर का वास्तविक स्वरूप क्या है? कैसा है? ईश्वर के साथ सुख-दुःख की बात जोड़नी ही क्यों चाहिए? हमारा सुखदुःख हमारे साथ है। हमारे अपने कृत कर्मजन्य है फिर उसे ईश्वर के साथ जोड़ देना कितनी भारी भूल है। भगवान सर्वज्ञ और वीतरागी है। जबकी उसकी भगवत्ता को संसार में प्रवाहित प्रसारित करने वाला भक्त राग द्वेषग्रस्त अज्ञानी एवं मोहादिसे ग्रस्त है। यदि सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतरागी ऐसे ईश्वर की श्रद्धा एवं ज्ञान हमें अल्पज्ञों, अज्ञानीयों एवं मोहासक्त अंधश्रद्धालुओं के द्वारा होगी तो वह कैसी होगी? स्वयं अज्ञानी हमें कैसे सम्यग् ज्ञान प्रदान करेगा? अपने आप में खुद मिथ्याज्ञानी हो वह हमें सम्यग् सच्चा ज्ञान कहां से देगा? और यदि ज्ञान ही मिथ्या होगा तो फिर श्रद्धा सम्यग् कैसे हो सकती है? जी नहीं! कदापि नहीं। अतः श्रद्धा के आधारभूत ज्ञान का सम्यग् होना नितान्त आवश्यक है।
इस सिद्धान्त के आधार पर कम से कम हमें इतना तो अवश्य ही समझना चाहिए कि... हमें ऐसे तथाकथित मिथ्यावीयों या अज्ञानीयों के पास से सीखकर श्रद्धा नहीं बनानी चाहिए। अपितु शास्त्र सिद्ध शास्त्रोपदिष्ट सम्यग् स्वरूप के आधार पर ही अपना ज्ञानदर्शन विकसित करना चाहिए। यही सही रास्ता है।
प्रस्तुत पुस्तक में मैंने ईश्वर विषयक ज्ञान को प्राधान्यता देते हुए वाचक वर्ग को सच्चाई के शिखर पर ले जाने का प्रयास किया है। इसीलिए तर्क गम्य युक्ति पुरस्सर प्रश्नार्थक वाक्य रचना के रूप में बुद्धिजीवी वाचक वर्ग के समक्ष प्रस्तुत किया है। ईश्वर का स्वरूप, ईश्वर कैसे बना जा सकता है कि प्रक्रिया भी प्रस्तुत की है। अनेक धर्मों की मान्यता को लेकर बुद्धि की कसोटी पर कसने का प्रयास भी निखर आएगा। अतः प्रथम ईश्वर विषयक ज्ञान सम्यग् सत्य हो जाय फिर उस सच्चे ज्ञान के आधार पर ही श्रद्धा बनाए, श्रद्धा को आगे बढ़ाए और ऐसी श्रद्धा का उपयोग भक्ति में, ध्यान में, साधना में, उपयोग में लाए इतना ही उद्देश्य इस लेखन श्रम के पीछे रखा है। आशा है बुद्धीजीवी पाठक वर्ग अज्ञानता एवं अंधश्रद्धा का निर्मूलन करके अरिहंत को पाने की तथा अन्त तो गत्वा अरिहन्त बनने की दिशा में अग्रसर होगा।
- अरुणविजय म.