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“पयट्ठियाणं च तइयं तुं” पद पर बिराजमान मुनिजनों को किया जाता है । वह पद कहते हैं
आयरिय उवज्झाए, पवत्ति थेरे तहेव रयणिए । किकम्म निज्जरट्ठा, कायव्वमिमेसिं पंचण्हं ॥१३॥
आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, और रत्नादि पदविओं के धारक महात्माओं को स्व कर्म निर्जरार्थ यह तीसरा द्वादशावर्त वंदन किया जाता है। इस प्रकार नमस्कार से भी विशेष विधियुक्त जो वंदन कहलाते हैं - वे कैसे करें और किन्हें करें ? उनके अधिकारी आदि कौन - आदि बातें हमें कही गई हैं।
विनय की परम्परा :
नमस्कार और वंदन ये विनयगुण के प्रतीक है द्योतक है । इनका योगफल विनयगुण है, विनम्रता का भाव है । जीव अपना विनम्र भाव प्रदर्शित कर सकता. है, और इन वन्दन नमस्कार में जीव के विनम्र भाव, विनयगुण की योग्यता पात्रता, नम्रता की पहचान है - परिचय है । हमें विनयी बनना है या अविनयीउद्धत्त होना है ? नमस्कार करने वाला बनना है या तिरस्कारकर्ता बनना है ? गुणवान है या दोषयुक्त बनना है ?
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दोषयुक्त क्यों बने ? इस में प्रारंभ में अपना कभी भी किसी प्रकार का लाभ नहीं हैं, जबकि . विनयादि के आचरण में तो अनेक लाभ रहे हुए हैं । अतः विनयगुण की प्रशंसा शास्त्रकार महर्षियों ने खूब की हैं । इतना ही नहीं, इसे प्राथमिक आवश्यकता मानकर आचारकी श्रेणी में ही रख दिया है और कहा हैं कि :
आयारस्स उ मूलं, विणओ सो गुणवओ य पडिवत्ती । साय विहि- वंदनाओ, विही इमो बारसावत्ते त्ता ||३||
गुरूवंदन भाष्य की इस गाथा में कहते हैं कि “ आचार धर्म” का मूल विनय है, और यह विनय गुणवान गुरु की भक्तिस्वरुप है । गुणवंत गुरू की ऐसी भक्ति विधिपूर्वक वंदना करने से होती है और यह विधि इस द्वादशावर्त वंदनादि में कथित है । इसमें क्रमशः बताया हुआ है कि आचार का प्रथम मूल विनय गुण है और विनय गुण से गुरु भक्ति विधिपूर्वक वंदन से होती है ।
इस प्रकार वंदन में विनयगुण की सत्ता दिखाई गई है । यदि विनय गुण
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