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उस पूज्य भाव की द्योतक नमस्कार की कायिक क्रिया होनी ही चाहिये, परन्तु नमस्कार मात्र कायिक बनकर क्रियात्मक ही रह जाए और भाव कक्षा में मानस तक न पहुँचे और पूज्य भाव में यदि परिणत न हो तो उसकी उपयोगिता सिद्ध नहीं होती है । पूज्य भाव पूजा को प्रकट करता है. | पूज्य भाव एक गुण है, पूजा गुणात्मक है - इसका स्थानमन है और इससे भी आगे बढ़े तो आत्मा - चेतन जीव स्वयं इस का स्थान है।
लोक व्यवहार में भी पत्रादि लिखते समय हम परम पूज्य, आदरणीय सम्मानीय, पूजनीय आदि शब्द लिखकर संबोधन करते हैं, क्यों कि जिन्हें पत्र लिखा ना रहा है, वे प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि दूर हैं, उन्हें भी अपने पूज्य भाव की अनुभूति हो इसलिये ऐसे सुंदर शब्दों का प्रयोग किया जाता है । ये शब्द हमारे मानसिक भावों को प्रकट करते हैं कि हमारे मन में सामने वाले व्यक्ति के प्रति कितने पूज्य भाव हैं - ऐसी ही बात परमात्मा के प्रति भी है । प्रभु के दरबार में गए, वहाँ प्रभु के प्रति पूज्य भाव प्रकट करना है, पूज्यभाव मन में है उसे बाहर लाने के लिये नमस्कार का व्यवहार, नम्र भाव की. गुण स्तुति, द्रव्य से पूजन, आदि जो पूज्य भाव प्रकट करने के साधन हैं, और साधन भी. साधना का ही उपयोगी अंग है । साधन के बिना साधना नहीं हो सकती है। नमस्कार की साधना करनी है, उसके लिये द्रव्य नमस्कार हाथ-पाँव, मस्तक आदि साधनभूत अंग हैं, हाथ, पाँव सिर नमाकर नमस्कार करते हैं, फिर भी मनोयोग से मानस भाव पूजा पूज्यभाव में प्रकट हो वही अधिक उपयोगी है।
द्रव्य - भाव संकोच नमस्कार
। नमस्कार
द्रव्य संकोच नमस्कार
भाव संकोच नमस्कार
. इस प्रकार नमस्कार के दो भेद बताए गए हैं । द्रव्य संकोच नमस्कार में ही बाह्य का समावेश होता है । देह द्वारा कायिक नमस्कार करना भी बाह्य भेद है। आत्मा के लिये काया बाह्य तत्त्व है - बाह्य द्रव्य है और हाथ - पाँव मस्तक आदि नमाने की नमस्कार की क्रिया को भी हम द्रव्य नमस्कार ही कहेंगे । यहाँ संकोच
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