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________________ सामान्य जीव तो ज्ञानी नहीं है। अतः वह ईश्वर की इच्छा को कैसे जान पाए? जब ईश्वर का स्वरूप और वह भी बिल्कुल यथार्थ वास्तविक स्वरूप पहचानना ही. सामान्य जीव के वश के बाहर की बात लगती है तो फिर ऐसे ईश्वर की इच्छा जानना या पहचानना शायद योगियों के लिए भी असंभव लगता है। समग्र विश्व में ऐसा कोई समर्थ एवं सक्षम नहीं है कि जो ईश्वर की इच्छा को पहचान सकें। ___ जी...हां... ईश्वर को पहचानना फिर भी संभव है। प्रस्तुत पुस्तक में ईश्वर के ही यथार्थ वास्तविक स्वरूप को पहचानने की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास किया गया है। वाचक-पाठक वर्ग को भी इस दिशा में ले जाने का प्रयास किया है। यह बुद्धिजीवी वर्ग की बुद्धि को अपील करें इसलिए तर्क-युक्तियों से सजाकर प्रस्तुत पुस्तक का लेखन किया है। स्वाभाविक है किन कथाप्रिय सामान्य जन को अप्रिय लगे लेकिन बुद्धिजीवी वर्ग को अपीलकारक अवश्य बनेगी ऐसी आशा दृढ़ बनती है। सत्य तो यह है कि... जब ईश्वर का यथार्थ वास्तविक स्वरूप जब पहचानते हैं तब इच्छा जैसा तत्त्व कुछ बीच में रहता ही नहीं है। अरे...? ईश्वर और वह भी इच्छा के आधीन? यह सर्वथा विरोधाभासी बात लगती है। जो जो इच्छा के आधीन होता है वह ईश्वर कहलाता है? या जो ईश्वर हो वह इच्छा के आधीन कहलाता है? किसके साथ आप व्याप्ति जोड़ेंगे? कौन-सी व्याप्ति सही बनाएंगे? क्या यह अन्वय व्याप्ति है कि व्यतिरेक व्याप्ति? यदि इच्छा की ही महत्ता हो तो ठीक है। इच्छा के आधीन हो वही ईश्वर तो फिर सामान्य.मानवी को क्या कहेंगे? क्या सामान्य मानवी इच्छा से परे हैं? कदापि नहीं। क्या ईश्वर बनने के लिए इच्छाओं का उद्भव अनिवार्य है? कदापि नहीं। ईश्वर बनने के लिए इच्छाओं के आधार को सर्वथा अनुचित ही कहना यथार्थ है। इससे इच्छावाले मनुष्यों · में अतिव्याप्ति होगी। अतः सुखदाता, दुःखहर्ता, विघ्ननाश कर्ता संकट मोचन, बंधन छेदक, स्वर्गदाता, सृष्टि कर्ता, सर्जनहार, पालन करने वाला तथा संहार या महाप्रलय करने वाला आदि के स्वरूप वाले को ईश्वर कहना या नहीं? इस की तार्किक विचारधारा प्रस्तुत पुस्तक में की है। युक्तिगम्य, बुद्धिगम्य तर्क पूर्ण लेखन करके प्रस्तुत पुस्तक को बुद्धिजीवी वर्ग के अनुरूप बनाने का प्रयास किया है। क्या ईश्वर... परमात्मा- भगवान या उपास्य तत्त्व मात्र श्रद्धा गम्य ही है? क्या ज्ञान गम्य है ही नहीं? या ज्ञान गम्य हो ही नहीं सकता है? अरे.....! जो ज्ञान गम्य ही नहीं हो सकता है, वह श्रद्धा गम्य भी कैसे हो सकता है? ज्ञान ही सत्यासत्य का भेदक है। यदि हम ज्ञान से तत्त्वों-पदार्थों को यथार्थ - वास्तविक स्वरूप में जाने-पहचानें बिना ही मानते
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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