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आत्मा ने संसार में जीने के लिए एक जीवन मंत्र सा बना लिया लगता है, और वह है - “सुख मिले और दुःख टले"। हमेशा यही मंत्र सभी जीव मन में रटते रहते हैं। जीव मात्र का संसार में यही रटण रहता है। निंद में या भूल से भी इन शब्दों के उच्चारण में विपरीतिकरण भी नहीं होता है। अर्थात् दुःख मिले और सुख टले ऐसा कोई नहीं बोलता है। इच्छा भी नहीं रखता है। भूल से विचार भी नहीं करता है। अनादि कालीन मोह कर्म मिथ्यात्ववश जीव मात्र की ऐसी विचारधारा बन ही जाती है। अब इसे बदले कौन? और कैसे? जीव स्वयं जब सम्यग् दर्शन सच्ची वास्तविक दृष्टि प्राप्त करेगा तभी यह परिवर्तन संभव है। आप शायद कहेंगे कि... इसमें विपरीत भी क्या है? यह कैसे गलत है? जी... हां... सही उत्तर यह है कि मिथ्यात्व का कार्य ही विपरीत मति निर्माण करना है। यह विपरीतता वास्तविकता से सर्वथा विपरीत ही होती है। मिथ्यात्व कभी भी चरम सत्य को स्वीकारने की वृत्ति वाला ही नहीं होता है।
सुख और दुःख आखिर है क्या? कृत कर्म का ही विपाक है - फल है। शुभ कर्म का फल सुख और अशुभ कर्म का फल दुःख है अर्थात् जन्म-जन्मान्तर में दानादि द्वारा जो भी पुण्य-शुभ कर्म उपार्जन किये हो और जब उनका काल परिपक्व होने पर उदय में आते ही वे सुख रूप फल प्रदान करते हैं। जीवों को सब बातों में जो अनुकूल लगता है उसे सुख रूप फल कहते हैं। ठीक इससे विपरीत जिन जीवों ने हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप - अशुभ कर्मों की प्रवृत्ति की हो और उससे जो कर्म बंध हुआ हो कालान्तर में वह उदय में आने पर सर्वथा प्रतिकूल फल प्रदान करता है उसे दुःख रूप फल कहते हैं। इस सिद्धान्त से यह स्पष्ट होता है कि सुख-दुःख यह अपने खुद के किये हुए शुभाशुभ कर्मों का ही फल है। जो जीव मात्र के हाथों में है। न कि ईश्वर के हाथों में। फिर भी अज्ञानता एवं मिथ्यात्व की विपरीत मति के कारण जीवों ने ऐसा मान रखा है कि जीवों को सुखदुःख देने वाला ईश्वर ही है। ईश्वर क्यों सुख देता है? इसके उत्तर में कोई सही कारण न मिलने पर... बस ईश्वर की मरजी। उसकी इच्छा। किसी को सुख और किसी को दुःख यह मात्र ईश्वर की इच्छा के ही आधीन है।
ऐसी मान्यता या धारणा बन जाने पर अब कोई भी जीव क्या सोचेगा? मैं क्यों अच्छा-बुरा कुछ भी सोचुं या करूं? अच्छा करूंगा तो भी ईश्वर सुख ही देगा ऐसा भी निश्चित ही नहीं है। क्योंकि सुख देना तो मात्र ईश्वर की इच्छा के आधीन है और यदि में बुरा-गलत-पाप भी करूं तो भी क्या फरक पड़ता है। बुरा काम देखकर उसके आधार पर तो ईश्वर फल देता ही नहीं है। वह तो अपनी इच्छा मात्र के आधार पर ही फल देता है। न मालूम ईश्वर को कब क्या इच्छा होगी? और न मालूम कब कैसी इच्छा बनेगी?
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