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हजारों के पैरों में आता था, वही पत्थर, आज प्रतिमा का रुप धारण कर हजारों लाखों लोगों द्वारा पूजित है, आज उस प्रतिमा के चरणों में हजारों लाखों के मस्तक नमन करते हैं, फिर भी प्रतिमा को पत्थर मानने की विरोधिओं की, पत्थर हृदय की, पाषाण बुद्धि कितनी जड़ होगी ? ऐसे जड़ बुद्धि के जीवों के दिलों - दिमाग भी पत्थरवत् कठोर ही होते हैं, जब कि प्रतिमा में प्रभु मानकर उसकी पूजा करने वाले भक्ति प्रधान भक्त हृदय वाले कोमल होते हैं । अश्रद्धा कठोरता की जननी है, बाकि श्रद्धा भक्ति नम्रता को निमंत्रण देती है । अतः ऐसे प्रतिमा विरोधियों पर भाव दया का चिन्तन ही उपयुक्त है । हम भले ही इन्हें सुधार नसकें, परन्तु इन्हें तो कर्म सत्ता ही सुधारेगी । आज ये प्रतिमा को हाथ न जोड़े, परन्तु एक दिन तिर्यंचं गति में प्रतिमा की साद्दश्यता देखकर उसे हाथ जोड़ेगें और इस प्रकार करके तब वे उस मछली के जीव की भाँति कुछ बोध प्राप्तकर आगे के भवों में पुनः सच्चे मार्ग पर आएंगे वे भवी जीव हैं तो संतोष मानकर उनके कल्याण की भी कामना करें ।
नमस्कार या अभिमान ।
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चराचर विश्व में अनादिकाल से नमस्कार और अभिमान इन दोनों के ही व्यवहार प्रचलित हैं । दोनों ही परस्पर विरोधी विपरीत धर्म हैं । एक गुण रुप है, तो दूसरा दोषरूप है, एक सदाचार है, तो दूसरा अनाचार है । संसार में जीव उभयवृत्तिवाले हैं । कई स्वभाव से ही अभिमानी होते हैं, उनका मान कषाय प्रबल होता है जब कि विरले ही स्वभाव से नम्र विनीत होते हैं । उनका मान - कषाय क्षीण हो चुका होता है । 'नमो' भाव का द्योतक नमस्कार व्यवहार जीवन में संभव हो सकता है । मूलभूत गुण की सत्ता के बिना उसके अनुरुप व्यवहार कैसे संभव हो सकता है ? नमस्कार की क्रिया में बाह्य दृष्टि से देखा जाता है, नमनकर्ता नीचे झुककर नमन करता है । नमनकर्ता नीचे जाता हुआ अथवा नीचा तो दिखाई देता है, परन्तु वास्तव में वह जीव नीच गोत्र का अथवा नीच कुल-जाति तथा दुर्गति का नाश करके ऊपर की ओर उठता जाता है, जब कि अभिमानी जीव थोडी देर के लिये अक्कड़ बनकर ऊपर चढ़ता हुआ दिखाई देता है, परन्तु अन्ततः तो वह जीवं नीच गोत्र कर्म बाँधकर नीच कुल - जाति में उत्पन्न होता है, दुर्गति में गिरता है।
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