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नमस्कार की शिक्षा
मगध देश के शालिग्रामनगर के सेठ पुष्पशाल का पुत्र फरशाल बाल्यावस्था से ही नम्र विनयी और सरल स्वभाववाला था । योग्य भूमि में पड़े हुए बीज जिस प्रकार हवा, पानी, प्रकाशादि की अनुकूलता से उग जाते हैं और उनका विकास होता है, उसी प्रकार पूर्वजन्म से संस्कारावस्था में पड़े हुए बीज देव-गुरू आदि के शुभयोग से प्रकट होते हैं और विकसित होते हैं। फरशाल ने बाल्यावस्था में ही धर्म गुरु के मुख से विनय-नमस्कारके गुण की बातें सुन रखी थी और मात्र सुनने तक ही सीमित न थी, बल्कि दूसरे ही दिन से गुरूजनों अग्रजों का सम्मान - विनयादि का सुंदर आचरण उसने नमस्कार द्वारा प्रारंभ कर दिया था ।
बात भी सही है कि मनुष्य जेवर- आभूषणों आदि से सुशोभित नहीं होता परन्तु उसके जीवन के विशिष्ट गुण ही उसकी शोभावृद्धि करने वाले आभूषण बन जाते हैं । फरशाल कुमार भी अपनी शोभा नमस्कार प्रवृत्ति से बढ़ाता गया । नित्य प्रतिदिन माता-पिता आदि को नमस्कारादि करके उनके प्रति विनय को सुरक्षित रखने लगा । एक दिन पिता को अपने गाँव के सरपंच को नमस्कार करते देखा अतः पुत्र ने भी उन्हें नमस्कार किया । गुरुजनों को मिलने के लिये, उनके पास जाने के लिये नमस्कार ही श्रेष्ठ उपाय है - व्यवहार है - ऐसा पिता श्री ने उसे समझाया । नमस्कार करने वाला छोटा और जिसे नमस्कार किया जाता है वह नमस्करणीय बड़ा होता है. इस नियम के अनुसार जो जो बड़ा मिले उसे फरशाल नमस्कार करता रहता है । नमस्करणीय व्यक्ति उत्तम और उच्च होता है - ऐसा उसके पिता ने उसे स्पष्ट कर रखा था ।
- एक बार पिता - पुत्र राजगृही नगरी में गए । वहाँ राजपुरूष मंत्री आदि को नमस्कार करते हुए लोगो को देखा । अतः पिता को बिना पूछे ही बालक नमस्कार के नियमानुसार समझ गया कि यह कोई महान् व्यक्ति है । फिर राजदरबार में मगध के अधिपति सम्राट श्रेणिक को मंत्रियों आदि समस्त नागरिकों के द्वारा नमन वन्दन किये जाते देखा अतः फरशाल समझ गया कि यह सर्व श्रेष्ठ व्यक्ति होना चाहिये, और उसने भी करबद्ध-नमस्कार किये तथा अपने पिताश्री को उसने प्रश्न किया, क्या इन से भी बढ़कर कोई महान व्यक्ति तो अव नहीं है न? पिता ने कहा, 'पुत्र! हमें तो नमस्कार के नियमानुसार समझ कर व्यवहार करना चाहिये, जो नमन करता है वह छोटा और जो नमस्करणीय है वह बड़ा । अतः
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