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मानना - न माननारूप जिनाज्ञा ध्येयरूप है । अतः ज्ञानात्मक आज्ञा में कुछ भी शेष नहीं बचता। दूसरे अपायविचय में समस्त संसार के अनन्त जीवों के दुःखों एवं दुःखों के कारणों का विस्तार से विचार किया गया है। इस तरह दुःख निमित्तक विचार करते करते समग्र लोक को, लोकस्थ छोटे-बडे जीवों को अपना विषय बना लिया है । इसी तरह तीसरे विपाक विचय में कर्म के फल का विचार करते करते ... . समग्र, लोक-संसार का दीर्घ विस्तृत विषय बनाया है । और अन्त में ४ थे संस्थान विचय ध्यान में... तो लोक - अलोक कुछ भी अवशिष्ट नहीं रखा। ध्याता भले ही अनन्त ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने में अनन्तवें भाग के कोने में भले ही बैठा हो फिर भी वह अपने भीतर ध्येय के विषय में अनन्त ब्रह्माण्ड को भी लाकर स्थित कर देता है । इस तरह धर्म ध्यान के विषय में विस्तार बहुत ज्यादा है । ध्याता चारों प्रकार के धर्मध्यान से समूचे ब्रह्माण्ड अनन्त लोकालोक के समस्त ज्ञेय पदार्थों को अपने ज्ञान का विषय बनाकर ध्यान की अनुभूति रूप कसोटी पर लाकर कस कर देखता है । इनमें अनेक शाश्वत पदार्थ हैं, अनेक अशाश्वत पदार्थ हैं । तथा इस समग्र संसार में शाश्वत व्यवस्था, शाश्वत स्वरूप भी काफी लम्बी-चौडा है । यह संसार गाडी के पहिए की तरह घूमता-फिरता चक्र समान है अतः बदलते हुए काल - कालान्तर में वही भूतकालीन स्वरूप वर्तमान बनकर वापिस आता है । फिर नया ताजा लगता है । फिर भूतकाल के गहरे गर्त में वर्तमान कहीं लुप्त होकर वापिस भूतकाल बन जाएगा । पुनः वैसा ही भविष्य दिखाई देगा। अच्छे काल की हम करेगे । वापिस
भावि उतरकर वर्तमान में आएगा और वर्तमान तो थोडे समय के लिए ही रहता है फिर समाप्त होकर भूत में चला जाता है । (पहले के अनुच्छेदों में ६ आराओंरूप कालचक्र के स्वरूप को पुनः पढिए, परिवर्तनशील काल के स्वरूप को पुनः गौर से पढ़िए ।) इस तरह सतत - निरंतर गतिशील संसार काल के आधार पर परिवर्तनशील है । यह स्वरूप ध्यान की अनुभूति पर लाकर देखा जा सकता है ।
काल चक्र
¡ 044
१०४४
ĐÃ ĐÂY
9
२ सुखं
दुःख ३ सुखं दुः
5
-४ दुःखं मुखं
५ दुःख
4
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आध्यात्मिक विकास यात्रा