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________________ I भी अच्छी तरह देख ले। ऐसे संसार समुद्र में दर्शन - ज्ञानादिवान् मोक्ष मार्ग को भी देख ले। जो “सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्गः” सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदिरूप यह मोक्ष का मार्ग है। जीवादि नौं तत्त्वों का विस्तार से चिन्तन कर ले। आश्रव - संवर-बंधादि का अच्छी तरह विचार करके मोक्षनगर का अवलोकन करे । जैसे फिल्म अपनी आंखों के सामने क्रमशः सभी विषयों के दृश्यों को लाती है । ठीक उसी तरह ध्याता स्वयं भी अपने ध्यान में संस्थानविचय ध्यान में लोक अलोक के समस्त विषयों को लाए । अन्त में समग्र चतुर्दश रज्ज्वात्मक लोकसंस्थान के अग्रभाग पर ... अपने रहने के लिए जो शाश्वत धाम है उसका अच्छी तरह अवलोकन कर ले। ऐसी मुक्तिपुरी में मुझे वहाँ किस स्वरूप में किस तरह कैसा बनकर रहना है यह भी अवलोकन कर ले। उस शिवपुरी में अनन्त सिद्ध परमात्मा सिद्ध - बुद्ध - मुक्त स्वरूप में किस स्वरूप में कैसे बिराजमान है उनका अवलोकन संस्थानविचय ध्यान का ध्याता बडी सरलता से कर सकता है । फिर वहाँ बैठे हुए अपने आपको भी अच्छी तरह शुभ-शुद्ध स्वरूप में देख ले । आखिर कभी न कभी तो मुझे भी वहाँ जाना ही है। तो हाँ... जहाँ जाना है जहाँ अनन्तकाल तक स्थायी स्वरूप से स्थिर रहना है। उस स्थान विशेष एवं अपरिवर्तनशील पर्यायवाली स्थायी स्थिर पर्याय को भी ध्याता ध्यान का विषय बनाते हुए स्पष्ट देख ले । इस तरह स्वयं द्रष्टा बनकर साक्षीभाव से राग- -द्वेष रहितभाव से देख ले । संस्थानविचय का ध्याता अनेक विषयों को अपने ध्यान का विषय बनाकर जो जो ब्रह्माण्ड में है वे सब अपने पिण्ड में है ऐसा स्वरूप बनाकर देख ले । ध्याता को प्रत्यक्षरूप से सब स्पष्ट दिखाई देता है । अनुभूति के स्तर पर स्पष्ट होता है। इस तरह संस्थानविचय ध्यान करके अनन्त की एक सफर कर आए। ऐसी लटार मारे कि अनन्त ब्रह्माण्ड अपनी आत्मचेतना में समा जाए। ऐसा सुंदर संस्थानविचय धर्मध्यान करे I 1 I क्रमशः विषय विस्तार I शुभानरूप धर्मध्यान के चारों प्रकारों में ध्यान के ध्येयरूप विषयों का विस्तार काफी ज्यादा है । या ऐसा ही कहिए समस्त ब्रह्माण्ड विषय बनता है । आज्ञा विषय में तो समस्त सर्वज्ञभाषित श्रुत शास्त्र समा जाता है। और समस्त श्रुतज्ञान में परमात्मा ने लोकालोक के समस्त अनन्त पदार्थों का समावेश कर लिया है। जिससे जगत् का कोई भी पदार्थ छूटता नहीं है । क्योंकि किस पदार्थ को कैसा मानना ? कैसा किस स्वरूप में 1 ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०४३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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