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________________ SELF INTROSPECTION - आत्मनिरीक्षण करिए... जी हाँ..... पधारिए.... क्या यह पुस्तक साद्यन्त पूरी पढ ली आपने? कितनी बार पढी? माफ करना... यह कहानी किस्से की नवलकथा नहीं है।.... यह सर्वज्ञ के सिद्धान्तों की गहराई को समझाती शास्त्रीय तात्त्विक विषय के विवेचन का ग्रन्थ है । कृपया .. दूसरी-तीसरी बार पुनः पढिए । आप स्वयं दोहन करिए..चिन्तन.. मनन.. करिए। आत्मा की गहराई में पहुँचिए । अन्दर ही अन्दर आत्मा में उतरिए । आत्ममंथन की प्रक्रिया शुरु करिए । गुण-दोषों का दर्श करिए । इन १४ गुणस्थानों के सोपानों पर मैं स्वयं खडा हूँ ? किस गुणस्थान पर हूँ ? ओ.. हो... ये तो गुणस्थान हैं । गुणों के स्थान रूप सोपान हैं। कहीं मैं दोषस्थान में तो नहीं खडा हूँ ? देखिए... देखिए... अपनी अंतरात्मा को देखिए.. । क्या मैं मिथ्यात्वी हूँ ? मेरी मान्यताएं ? मेरा विश्वास किसमें है ? कैसा है ? मैं क्या मानता हूँ ? सही या विपरीत ? अरे ! मैं इस मिथ्यात्व के बंधन में से बाहर निकला हूँ या नहीं? राग-द्वेष की निबिड ग्रन्थि का भेदन मैंने किया है या नहीं? मैं सम्यग् दर्शन की भूमिका में भी पहुँच पाया हूँ या नहीं? ८ में से कौन सी दृष्टि मेरी खुली है ? कितनी दृष्टि विकसित हुई है ? मैं शुद्ध श्रद्धालु बना कि नहीं? नौं तत्त्वों की शुद्ध श्रद्धा जगी कि नहीं? मुझे इन नौं ही तत्त्वों का सही सम्यग् ज्ञान प्राप्त हुआ कि नहीं? क्या देव-गुरु-धर्म विषयक मान्यता सत्य बनी ? कि नहीं? मोक्षाभिमुख एवं आत्मसन्मुख अभी भी मैं बना कि नहीं? मैं भव्य की कक्षा का हूँ ? या अभव्य की कक्षा का? अपनी अन्तरात्मा को पूछकर निर्णय करिए। आत्मा अन्दर से सही जवाब देगी। पूछिए... क्या मैं ४ थे गुणस्थान पर खडा हूँ? . क्या मैंने राग-द्वेष कषाय की वृत्ति थोडी भी कम कि या नहीं? अरे ! मैं पापभीरु भी बना कि नहीं? क्या पापों से डर लगता है ? हे अन्तरात्मा ! बोल ! सही बोल ! पाप में मजा आती है कि फिर पापों की सजा सामने दिखाई देती है। अरे ! मार्गानुसारी के लक्षण भी मेरे में आए कि नहीं? .... अब पापों से बचने की भावना भी है कि नहीं? इस हिंसा-झूठ-चोरी से मन उठ गया कि नहीं? विषय-वासना और काम संज्ञा से भी ऊपर उठा कि नहीं? क्रोधादि कषाय की मात्रा भी कम की कि नहीं? क्या पापों की निवृत्ति और धर्म की प्रवृत्ति में रस जगा कि नहीं? व्रत-नियम–प्रत्याख्यान लिये कि नहीं? किये कि नहीं? विरतिधर्म स्वीकार किया कि नहीं? विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४८७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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