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________________ करनी पड़ती है। उस ध्यानादि के स्वरूप का वर्णन भी किया है। अब ८ वे से नौवे गुणस्थान के सोपान पर आकर साधक अनेक कर्मप्रकृतियों का क्षय करके काफी अच्छी तैयारी करता है । कर्मों का क्षय करने कुछ बचे उसको १० वे गुणस्थान पर पहुँचकर भी निकाल देता है । बस, मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने के पश्चात् तो सवाल ही नहीं है । १२ वे गुणस्थान से मोक्ष में जाने के लिए, जिन गुणों की पूर्णरूप में आवश्यकता है वे प्रगट होने शुरु होते हैं । आगे क्रमशः आत्मा के गुणों के खजाने में से एक-एक प्रगट होते हैं .... १३ वे गुणस्थान पर पहुँचते ही ज्ञानादि चारों आत्मगुण पूर्ण की कक्षा में प्रगट हो जाते हैं। यह भी गुणों की उत्पत्ति नहीं... परन्तु प्रगटीकरण है, प्रादुर्भाव है । मोक्ष में जाने के लिए अनिवार्य रूप से जिनकी आवश्यकता है उनकी प्राप्ति यहाँ हो जाती है। इसलिए मोक्ष में जाने के बाद कुछ भी नहीं मिलता है। परन्तु मोक्ष में जाने के लिए जो जो आवश्यक है, जरूरी है, वह सब यहाँ संसार में मिलता है। यहाँ से ही प्राप्त करके साथ ले जाना पडता है। उसमें बाहरी चीज तो कुछ भी नहीं है जो है वह आन्तरिक है-आत्मिक है। आत्मिक वैभव है । आत्मगुणों का वैभव है । ज्ञान-दर्शनादि क्षायिक भाव के एक बार प्राप्त हो गए कि फिर समझिए कि मुक्ति निश्चित हो गई । अब कोई संदेह ही नहीं है । १३ वे गुणस्थान पर केवलज्ञानी सर्वज्ञ भगवान बनकर... जगत पर उपकार करना है । जो पाया है, जैसे पाया है, वह जगत को देना है । इसलिए वर्षों तक अपना कर्तव्य निभाते एवं कर्मों को खपाते हुए काल निर्गमन करके १४ वे गुणस्थान पर पहुँचना है। इस १३ वे गुणस्थान पर आधी मुक्ति तो हो चुकी है । अतः सयोगी केवली अर्धसिद्ध या सदेह सिद्ध तो वैसे भी कहलाते ही हैं। फिर भी जो शरीरादि का बंधन है इसको दूर करने के लिए १४ वे गुणस्थान पर पहुँचकर योग निरोधादि करके.... मन-वचन-काया के एवं कर्मों के बंधन से आत्मा सर्वथा छुटकारा पाती है। और सदा के लिए मुक्ति के धाम में जा पहुँचती है। बस, जो लक्ष्य था.... अंतिम साध्य था वह साध लिया, कार्य सिद्ध हो गया फिर दूसरा प्रश्न ही कहाँ है । मोक्ष की प्राप्ति यही आध्यात्मिक विकास की अन्तिम सीढी थी। यह अन्तिम सोपान है । बस, यहाँ आत्मा का विकास पूरा होता है। समाप्त होता है। इसके आगे कुछ भी नहीं है । निगोद से शुरु की हुई आध्यात्मिक विकास की यह यात्रा मोक्ष की प्राप्ति में समाप्त होती है । पूर्ण होती है । मोक्ष के आगे कोई विकास शेष नहीं रहता है। संसार की सभी भव्यात्माएँ इस तरह अपना विकास साधते हुए मुक्ति प्राप्त करें यही भावना... ॥ नमो सिद्धाणम् ॥ १४८६ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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