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चाहिए । इस मोक्षविषयक अन्तिम विभाग में मैंने लगभग पाँचवे सूत्र के भाव को आधार बनाकर विवेचन किया है । इसका मर्म समझना चाहिए और नित्य अनुभूति के स्तर पर लाना चाहिए । प्रशमरति ग्रन्थ में पू. वाचक मुख्यजी उमास्वातिजी म. तो यहाँ तक लिखते हैं कि...
स्वर्गसुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् । प्रत्यक्षं प्रशमशखं न परवशं न व्ययप्राप्तम्॥ २३७॥ निर्जितमदमदनानां वाक्कायमनोविकाररहितानाम्।
विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ।। २३८ ॥ स्वर्ग के सुख तो परोक्ष है, और मोक्ष का सुख तो उससे भी अत्यन्त परोक्ष है। परन्तु प्रशमरस का सुख तो प्रत्यक्ष है, वह न तो पराधीन है और न ही खर्च करके प्राप्त करनेलायक है । जिसने अभिमान, कामवासना, को जीत लिया है । जो मन-वचन-काया के विषय में किसी भी प्रकार के विकारों से रहित हो तथा जो पराई आशा से निवृत्त हो, ऐसे प्रशमरस में तल्लीन साधकों के लिए मोक्ष का सुख तो हाथवेंत में यहाँ पर ही उपलब्ध है। बस, प्रशमरस का अनुभव करनेवाला ध्यानयोगी ध्याता साधक यहाँ पर ही मोक्ष सुख का रसास्वाद कर सकता है । (उमास्वाति म. का प्रशमरति ग्रन्थ अवश्य स्वाध्याय करने योग्य ही है ।) इस तरह मोक्ष के अचिन्त्य स्वरूप को समझ कर उसे प्राप्त करने के लिए सही दिशा में प्रगति करने के लिए पुरुषार्थ करना है । यही आत्मा की विकास यात्रा हैं। एतदर्थ सर्वप्रथम सिद्धों की शरण स्वीकार कर बस, भाव से उनके चरणों में बैठकर साधना करनी है। सिद्धों की शरण- .
तहा पहीणजरमरणा-अवेअकम्मकलंका पणट्ठवाबाहा केवलनाणदंसणा सिद्धिपुरनिवासी निरुवमसुहसंगया सव्वहा कयकिच्चा सिद्धा शरणम्॥ ____ जो जन्म, जरा और मरण से सर्वथा मुक्त है, अर्थात् इनके जन्मादि सर्वथा नष्ट हो चुके हैं, तथा कर्मरूपी कलंक जिनकी आत्मा पर से सर्वथा चला गया है, तथा जिनके सर्व प्रकार के दुःख-पीडा-वेदना आदि का सर्वथा नाश-क्षय हो चुका है, तथा जिन्होंने केवलज्ञानादि केवलदर्शनादि का अनुपम सुख प्राप्त कर लिया है... तथा “सिद्धिपुर" मोक्षनगर मुक्ति धाम में जो बिराजमान है ऐसे अनुपम अर्थात् जिसकी कभी किसी के भी साथ उपमा दी ही नहीं जा सकती है ऐसे निरुपम सुख-अनन्तानन्दवाले, सर्वथा कृतकृत्य हो चुके हैं ऐसे सिद्ध भगवन्तों की शरण स्वीकारता हूँ। यह शरण स्वीकृति ही अपने
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति
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