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________________ ७) भाग द्वार “सव्वजियाणमणते भागे ते" नवतत्त्वकार ने ४९ वे श्लोक में भाग द्वार की विचारणा की गई है । यहाँ “भाग" शब्द गणित की संख्या का वाचक है। दूसरों की तुलना में इनकी संख्या कितने भाग में है? यह भाग द्वार से समझाई गई है। समस्त जीवों का विश्लेषण करते समय २ भागों में विभक्त किया है । “जीवा मुत्ता संसारिणो य” जीव मुक्त और संसारी दो प्रकार के हैं। अतः मुक्तों की संख्या की तुलना संसारी जीवों के साथ होती है । और संसारी जीवों की संख्यादि की तुलना सिद्धों के साथ होती है। इसलिए शास्त्रकार महर्षि कहते हैं कि... ब्रह्माण्डस्वरूप समस्त लोक में...सिद्धों की संख्या संसारी जीवों के अनन्तवें भाग की ही है । अतः संसारी जीव अनन्तानन्त (अनन्त x अनन्त) की संख्या में है। जिसमें निगोद से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव समा जाते हैं। अतः इन अनन्तानन्त संसारी जीवों के सामने तुलना में सिद्धों की संख्या मात्र अनन्तवें भाग की ही है। इससे उल्टा मक्त जीवों की तुलना में संसारी जीव अनन्तगुने हैं। अनन्त को अनन्तबार गुणाकार करें इतने अनन्तानन्त जीव संसार में तीनों काल में सदा रहते ही हैं। सूक्ष्म साधारण निगोद के असंख्य गोलों के एक-एक गोले में असंख्य निगोद और उनमें भी एक एक निगोद में अनन्त-अनन्त जीव रहते हैं । यदि सूक्ष्म से बादर की कक्षा में भी आ जाय तो आलु, प्याज, लहसून, गाजर, मूला, शक्करकंद आदि में भी अनन्त जीव एक साथ रहते ही हैं । अतः एक–आलु (बटाटा) में अनन्त जीव हैं । इस तरह अनन्त निगोदस्थ जीवों की तुलना में सिद्धात्माओं की संख्या मात्र अनन्तवें भाग की ही है। फिर भी वह कितनी है वह कहने के लिए शब्द “अनन्त” ही वाचक होगा। इतने अनन्त जीवों को मोक्ष में जाने में कितना काल लगा? अनन्त काल लगा। अनन्त काल से भूतकाल में बीते हुए अनन्त काल से जीव मोक्ष में जाते ही रहे हैं, तथा भविष्य के अनन्त काल में भी अनन्त जीव मोक्ष में जाएंगे । जाते ही रहेंगे। इस तरह अनन्त काल तक अनन्त जीव मोक्ष में जाते ही रहेंगे। मोक्ष में सिद्धों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती ही रहेगी। फिर भी अनन्त काल के पश्चात् भी यदि कोई पूछेगा तो जैन शास्त्रों में एक ही उत्तर मिलेगा कि.. .अनन्त ही मोक्ष में गए हैं, जो संसारी समस्त जीवों की तुलना में अनन्तवें भाग के ही हैं। शास्त्र के शब्द इस प्रकार हैं जइआ य होइ पुच्छा, जिणाणमग्गंमि उत्तरं नइआ। इक्कस्स निगोयस्सवि अणंतभागो य सिद्धिगओ नवतत्त्व६० ।। विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४६१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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