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________________ अनर्थ होता है। अतः अनन्त आत्माएँ माननी ही उचित है। साथ ही साथ संसारी अनन्तात्माओं को कृतकर्माधीन ही मानना चाहिए। बस, इन सर्व कर्मावरणों का क्षय जो भी कर ले उसी का मोक्ष मानना चाहिए । सृष्टि की असमानता दुर्जनादि की उत्पत्ति, या दुःख - दारिद्रयादि की उत्पत्ति, वृद्धि आदि सब प्रकार की विपरीतता - विचित्रता, विसमता, विविधता और विसंगति ये स्वकृतकर्मादि के कारण से ही हैं। इसमें दुर्जनों का संहार करने मात्र से सृष्टि का संतुलन नहीं बन जाता है। सचमुच ही ईश्वर सर्वसामर्थ्यसंपन्न है तो ईश्वर का कार्य था कि उपदेश द्वारा दुष्ट-दुर्जन को बदलकर, उसका मानस परिवर्तन करके उसे सज्जन धर्मात्मा बना देना था । निरर्थक संहार करके ईश्वर हिंसा का महापाप क्यों करते हैं ? जब इतनी सरलता से ईश्वर उपदेश द्वारा दुष्ट दुर्जन को सज्जन बना सकते हैं तो फिर संहार करने की क्या आवश्यकता है ? या तो फिर उपदेश से परिवर्तन करने का सामर्थ्य ही ईश्वर में नहीं होगा ? अरे ! संसार के सामान्य साधु-संतो आदि के अन्दर ऐसा सामर्थ्य है कि वे दुष्ट-दुर्जनों का उपदेश मात्र से परिवर्तन करके सज्जन बना सकते हैं तो फिर ईश्वर में ऐसा सामर्थ्य नहीं है और संहार करने का सामर्थ्य है यह कैसी अजीब बात है ? ऐसा कैसा ईश्वर का स्वरूप मान रखा है वेदान्तियों ने ? वैदिकमतवादियों ने ? इस प्रकार की निरर्थक विसंगतियों से ईश्वर का स्वरूप कितना विकृत होता है ! अतः आर्हतों की तरह एक बार मोक्ष में जाकर जो सिद्ध बन चुके हैं उनका पुनः संसार में आगमन मानने की आवश्यकता ही नहीं रहती । वे सिद्ध श्रेष्ठ कक्षा के निरंजन - निराकार अकर्मी सिद्ध परमात्मा हैं । अपुनरावृत्ति का सिद्धान्त किसी भी प्रकार की विसंगति से ग्रस्त नहीं है । इसीलिए अन्तर द्वार में ऐसी विचारणा की गई है कि एक बार सिद्ध बन चुकने के पश्चात् पुनः संसार में आकर जन्म (अवतार) ग्रहण करे, और पुनः सिद्ध बने, पुनः संसार में जन्म लेकर जाय और पुनः मोक्ष में मुक्त बनकर रहे इस तरह का गत्यन्तर या जन्मांतर भी सिद्ध के लिए मानना ही नहीं चाहिए। अतः जन्म का अन्तर या अवान्तर जन्म, या गति का अन्तर मानना ही नहीं चाहिए। एक बार सिद्धगति पाकर पुनः जाकर कोई संसार की ४ गति पाए और पुनः सिद्धिगति में आ जाय और पुनः संसार की गति में जाकर जन्म ग्रहण करे, यह मानना हीं गलत है । सर्वथा अनुचित है । असत्य को मानने की अपेक्षा चरम सत्य को स्वीकारने में ही सम्यग् दर्शन है । उसी में कल्याण है । अतः “अपुनरावृत्ति” सिद्धान्त को स्वीकारना ही चाहिए । 1 आध्यात्मिक विकास यात्रा १४६०
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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