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________________ अन्यथा निरर्थक ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को कीचड से मलीन या विकृत करने का दोषारोपण ही सिर पर लेना है। क्या सर्वज्ञ और वीतरागी ईश्वर यदि स्वयं सृष्टि बनाता है और स्वयं ही नियन्ता बनकर लगाम हाथ में लेकर स्वयं ही चलाता है, या व्यवस्था करता है तो फिर ऐसे सर्वज्ञ - वीतरागी ईश्वर की सृष्टि की वर्तमान में है, वैसी हालत होती ? यह कितनी बेढंगी व्यवस्था है सृष्टि की। क्या स्थिति है सृष्टि की। है तो जरूर लेकिन इसका दोषारोपण जब ईश्वर पर होता है तब ईश्वर का स्वरूप कितना विकृत होता है ? फिर ईश्वर की वीतरागता और सर्वज्ञता में शंका खडी होती है। क्या सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर की रचित सृष्टि की स्थिति ऐसी दयनीय कभी हो सकती है ? क्यों ईश्वर को दयालु बनना पडा ? अपनी ही सृष्टि की ऐसी दयनीय स्थिति देखकर दयालु बनना पडा । जीवों को संसार में दुःखीः दुःखी देखकर ही ईश्वर को दयालु बनना पडा होगा । हाँ, यदि संसार में कोई दुःखी ही न होता तो ईश्वर को दयालु - करुणालु बनने की नौबत ही नहीं आती । लेकिन ईश्वर के इतने सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् सामर्थ्ययुक्त होने पर भी सृष्टि के जीव दुःखी हो कैसे गए ? सृष्टि की ऐसी दयनीय स्थिति हो कैसे गई ? क्यों हुई ? क्या ईश्वर ने ध्यान नहीं रखा ? शायद आप कहेंगे जीवों के कर्मों का उदय होने से.. . तो फिर आपने कर्म की सत्ता को स्वीकार लिया। ईश्वर का सामर्थ्य कहाँ गया ? क्या जड - पौगलिक कर्म से भी ईश्वर का सामर्थ्य कमजोर रहा ? कि ईश्वर के सक्रिय और सृष्टि को संभालते हुए भी बीच में जड जैसे कर्म ने आकर विक्षेप कर दिया कि सृष्टि का स्वरूप दयनीय हो गया । और ईश्वर मात्र मूक प्रेक्षक की तरह सिर्फ देखते ही रहे ? सामर्थ्य एवं शक्तिमान सर्वेसर्वा होने के बावजूद भी ईश्वर क्या कुछ भी नहीं कर सके, तभी तो दयालु करुणालु रूप बनाना पडा ? तथा दयालु–करुणालु बनने के बाद भी ईश्वर अभी तक भी अपनी सृष्टि को इस चुंगाल में से नहीं छुड़ा सके ? नहीं उगार सके ? तो फिर कहाँ गया ईश्वर का सामर्थ्य ? कहाँ गया सर्वशक्तिमानपना ? अन्यथा ये विशेषण निरर्थक सिद्ध होते हैं । ऐसे सेंकडों प्रश्न खंडे होते हैं । अतः निरर्थक ईश्वर का स्वरूप विकृत करना, या बिगाडना इसके बजाय तो सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय की बंधनावस्था में से ईश्वर को सदा के लिए जैनों की तरह मुक्त कर ईश्वर को बिचारे की दयनीय अवस्था में से आप उगार नहीं सकोगे और ईश्वर के स्वरूप को विकृति से भी नहीं बचा पाओगे । फिर ईश्वर पर कलंक सदा के लिए बना ही रहेगा । अतः अभी भी समझकर जिस सृष्टि की तोनों स्थिति के कारण ईश्वर पर कलंक लग रहा है उस कलंक को हटाकर ईश्वर का शुद्ध स्वरूप ही स्वीकारें ताकि मुक्ति आध्यात्मिक विकास यात्रा १४५४
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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