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करते हुए पाप की प्रवृत्ति का त्याग करेगा, बचेगा, फिर संवर से निर्जरा में जाएगा.... कर्मों का क्षय करेगा... गुणस्थानों के एक-एक सोपान चढता हुआ अन्त में ईश्वर के जैसा ही वीतराग स्वरूप, सर्वज्ञतादि सर्व आत्मगुणों को पूर्ण संपूर्ण स्वरूप में पाकर मोक्ष में जाएगा। सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बनेगा । इस प्रक्रिया में जीव ईश्वर का आलंबन लेगा। उसके बताए हुए, उपदिष्ट मार्ग पर चलेगा, और कृत्स्न कर्मक्षय करके ईश्वर के जैसा स्वयं भी ईश्वर ही बन जाएगा। इसलिए ऐसा ईश्वर मात्र सामान्य ईश्वर रूप ही नहीं....अपितु परमेश्वर रूप है । वह उपास्य तत्त्व है । आराध्य देव तत्त्व है । निरर्थक उसे संसार की सृष्टि के कीचड में लपेटने की आवश्यकता ही क्या है । सर्वज्ञवादी एवं सर्वज्ञवाची जैन दर्शन ने ऐसा गलत पाप ही क्या महापाप नहीं किया। बस, इसी कारण जैन दर्शन में ईश्वर-परमेश्वर का स्वरूप विकृत नहीं हुआ। अत्यन्त शुद्ध वैसा ही रहा । इसीलिए ज्ञान दर्शन में ईश्वर सिद्ध बाद में है लेकिन सबसे पहले वह शुद्ध है । शुद्धात्मा है । फिर सिद्धात्मा है, बुद्धात्मा है और मुक्तात्मा है । ईश्वर का यह स्वरूप जैन दर्शन ने गूढ-अकल नहीं रखा, अपितु स्पष्ट खुल्ला रखा है । इतना ही नहीं, ईश्वर बनने का द्वार भी सदा सबके लिए खुल्ला रखा है । संसार के अन्य किसी भी दर्शन ने ईश्वर बनने का द्वार खुला नहीं रखा । सबसे पहले बन्द कर दिए दरवाजे । साफ कहते हैं आप ईश्वर बन नहीं सकते हो । मात्र ईश्वर दर्शन से बडी कृपा प्राप्त कर सकते हो। ईश्वर की सायुज्यता प्राप्त कर सकते हो, या ईश्वर में समा सकते हो, या विलीन हो सकते हो । ऐसी बातें की हैं । अतः उनके मतों में ईश्वर में समा जाना, विलीन होना ही मुक्ति है । लेकिन फिर ईश्वर की इच्छा हो जाएगी तो सृष्टि के आदि कल्प में पुनः उन जीवों को निकालकर सृष्टि के चक्र में भेज़ देगा। जाओ... संसार में खेलो। फिर सृष्टि का क्रम चलता रहेगा। सारा कर्तृत्व अपने हाथ में रखकर अर्थात् लगाम हाथ में रखकर, (लेकर) अपनी सृष्टि का संचालन करता रहेगा ईश्वर । घोडागाडी या बैलगाडी चलाने में मालिक जैसा और जितना व्यस्त रहता है वैसे ही ईश्वर भी इस सृष्टि के संचालन की जिम्मेदारी अपने सिर पर लेकर सृष्टि को चलाता ही रहता है ऐसा ईश्वरकर्तृत्ववादियों का मानना है ।
लेकिन उन भले आदमियों ने इतना तक नहीं सोचा कि...अरे ! यह तो कर्मकर्तृत्व कारण से सृष्टि निरंतर ८४ लक्ष जीव योनियों में जन्म-मरण करती हुई चलती ही रहती है। जीवात्मा स्वयं ही कृत कर्मों के उदय के कारण जन्म-मरणादि धारण करती हुई चौराशी के चक्रवाले इस संसार के काल प्रवाह में निरंतर स्वयं ही बहती जाती है । क्या करेगा बिचारा नियन्ता? नियति में परिवर्तन करे तो नियन्ता कहना भी सार्थक लगता है
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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