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ऐसी “ईश्वरेच्छा बलीयसी" की ही मान्यतावाला हिन्दुओं के लिए मान्य ऐसा वेदान्ती है । वेद विषयक मान्यतावालों ने भी ईश्वरेच्छा को बलवत्तर माना है । क्योंकि कर्ता कहने के बाद तो सारी लगाम ईश्वर के ही हाथों में सोंपनी पडती है । अतः किसी ब्रह्मसायुज्यता को मोक्ष कहा, तो किसी ने ब्रह्म में विलीनता को मुक्ति कही, तो किसी ने ब्रह्मदर्शन, ब्रह्मप्राप्ति को मोक्ष की परिभाषा में बैठाया । इस तरह मोक्ष शब्द का प्रयोग करते हुए भिन्न-भिन्न तरीकों से विचारणा की गई है। लेकिन एकवाक्यता भी नहीं है । और एकरूपता भी नहीं है ।
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बौद्ध दर्शन यद्यपि मात्र ईश्वरावलम्बी नहीं है । वह उपदेशावलम्बी बनकर परिवर्तनवादी जरूर है, लेकिन क्या करें, मूलभूत तत्त्वों को ही मानने में सबसे बड़ी गल्ती कर दी । अन्यथा प्रक्रिया - पद्धति में आर्हत् दर्शन के साथ काफी समानता रखता है कर्मबंध, संवर, निर्जरा, उपदेशबोध, कर्मक्षय विषयक विचारों आदि की समानता के आधार पर आर्हत् दर्शन के साथ आंशिक समानता में मिलता है । अतः जैन-बौद्ध दर्शन में बोध विषयक समानता मिलती है । लेकिन तत्त्वविषयक अस्तित्वादि की समानता न मिलने के कारण उपरोक्त समानता भी गडबडाती है । इसलिए सम्यग् दर्शनादि में ही सबसे बडी भारी क्षति पहुँचती है ।
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जैन दर्शन मात्र ईश्वरावलम्बी दर्शन नहीं है एक मात्र ईश्वर को ही कर्ता-हर्ता मानकर यह दर्शन नहीं चलता है । इसलिए यह आत्मवादी दर्शन है । आत्मा को केन्द्र में रखकर यह दर्शन चलता है । मोक्ष प्राप्ति के एक मात्र लक्ष को लेकर चलने में ईश्वर जो मोक्षदर्शक मोक्षमार्गोपदेशक धर्मतीर्थ संस्थापक है । वह सृष्टा नहीं परन्तु दृष्टा है। दर्शक है । मोक्ष का दर्शक, मोक्षमार्ग अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के उपाय रूप धर्म को दिखानेवाला दर्शक है । इस हेतु से ईश्वर-अरिहंत-तीर्थंकर भगवान साध्य नहीं हैं, वह भी साधन मात्र ही हैं । अतः उसकी साधना की जाती है। ईश्वर परमात्मा को पा लेना, या ईश्वर में विलीन हो जाना, या ईश्वर को देख लेना (दर्शन मात्र कर लेना) या ईश्वर सायुज्यता, या ईश्वर दर्शन आदि जैसी अपूर्ण निरर्थक बातों को जैन दर्शन कोई महत्व प्रदान नहीं करता है। जैन दर्शन तो ईश्वर बनने में सर्वश्रेष्ठता मानता है । जबकि दूसरे सभी धर्म ईश्वर कोई बन ही नहीं सकता है ऐसा स्पष्ट बन्धन ही बता देते हैं ।
आत्मवादी एवं कर्मवादी इस जैन दर्शन में मोक्ष की प्राप्ति का एक मात्र लक्ष्य, अन्तिम साध्य रखने के लिए आदेश है । इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए ईश्वर की उपासना का आलंबन लेने का विधान है। जीवों को कर्मक्षय की साधना में साधन रूप से ईश्वर
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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