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________________ द्वार, ६) कालान्तर द्वार,७) भागद्वार ८) भाव द्वार और नौंवा अल्पबहुत्व द्वार । इन नौं द्वारों से मोक्ष की विचारणा करने से तत्त्व की विस्तार से मीमांसां होती है । अतः ये नौं द्वार मोक्ष के भेदरूप नहीं है । इन्हें भेद समझने की भ्रमणा या भ्रान्ति खडी न कर लें। यह चिन्तन पद्धति है जिसका किसी भी पदार्थ या तत्त्व के विचारार्थ उपयोग किया जा सकता है। १) सत्पदप्ररूपणा द्वार- “सत्" का अर्थ है अस्तित्व विद्यमानता । यदि कोई पदार्थ सत् है तो निश्चित रूप से वह विद्यमान होना ही चाहिए । अतः सत् पद से यह विचार स्पष्ट रूप से किया जाता है । अतः स्पष्ट ख्याल आता है कि पदार्थ का अस्तित्व है, विद्यमान है। अन्यथा ठीक इससे विपरीत असत् रूप से देखा जाय तो वह अभावात्मक पदार्थ रहता है । अभाव का सीधा अर्थ यही है कि जो विद्यमान ही नहीं है, और जिसका अस्तित्व ही नहीं है। ___अब नौं तत्त्वों में मोक्ष यह नौंवा एक अन्तिम तत्त्व है । अतः क्या यह मोक्ष तत्त्व सत् है या असत् ? यदि सत् ही है तो उस तरीके से विचार होता है । और यदि मात्र वह असत् ही हो तो अभावात्मक विचार उसके बारे में होंगे। अतः कैसा मानें मोक्ष को? क्या मोक्ष असत् कल्पना है? क्या यह अभावात्मक ही है? और यदि इसे अभावात्मक मानें तो कैसा अभाव मानें? क्या शशशृंग, वन्ध्यापुत्र या खपुष्प की तरह त्रैकालिक अभाव मानें? जैसे शश (खरगोश) के सिर पर सिंग अनन्तकाल पहले भी कभी थे ही नहीं और वर्तमान में भी नहीं है, अतः भावि में भी संभावना ही नहीं है । जैसे वन्ध्या के पुत्र का तीनों काल में अभाव ही होता है। पुत्र न होने पर ही उसे वन्ध्या कहते हैं । अतः वन्ध्या होना और पुत्र का भी होना दोनों तो साथ में संभव ही नहीं है । या तो वन्ध्या रहेगी और या फिर पुत्रवती माता रहेगी। क्या मोक्ष ऐसा अभावात्मक है? चार्वाक नास्तिक मतावलम्बी मोक्ष को सर्वथा अभावात्मक ही मानते हैं । मोक्ष का अस्तित्व ही नहीं मानते हैं । बौद्ध दर्शन भी निर्वाण या मोक्ष इन शब्दों का व्यवहार जरूर करते हैं लेकिन अस्तित्व रूप से उसकी विद्यमानता कुछ भी नहीं मानते हैं । अतः बौद्ध मत में मोक्ष कैसा है ? अभावात्मक मोश है। आत्मा के विलीनीकरण की प्रक्रिया को मोक्ष कहते हैं। जबकि आत्मा नामक पदार्थ के ही अस्तित्व को नहीं मानते हैं तो फिर मोक्ष क्या मानेंगे? बात भी सही है कि मोक्ष क्या है? आत्मा की कर्मरहित शद्धावस्था ही मोक्ष है। यदि कर्म को वासनारूप आदि तरीके से मानना हो तो फिर उस कर्म के आधारभूत पदार्थ को भी मानना तो पडेगा ही। वह कौन? क्या आत्मा के बिना कर्मों का अस्तित्व माना जा सकता है? कदापि नहीं? यह तो बात ही कैसी होगी? जैसे कि विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १४४१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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