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१) ज्ञानावरणीय कर्म के संपूर्ण क्षय से - १) अनन्त ज्ञान, २) दर्शनावरणीय कर्म के संपूर्ण क्षय से- २) अनन्त दर्शन, ३) मोहनीय कर्म के संपूर्ण क्षय से - ३) अव्याबाधस्वरूप अनन्त वीतरागता, ४) अन्तराय कर्म के संपूर्ण क्षय से - ४) अनन्त वीर्य ..., ५) नामकर्म के संपूर्ण क्षय से - ५) अनामी, अरूपीपना, निरंजन-निराकारपना..., ६) गोत्रकर्म के संपूर्ण क्षय से - ६) अगुरु-लघुगुण, ७) वेदनीय कर्म के संपूर्ण क्षय से - ७) अनन्त सुख - अव्याबाध सुख ८) आयुष्य कर्म के संपूर्ण क्षय से - ८) अक्षय स्थिति प्राप्त होती है।
इस तरह इन ८ कर्मों के क्षय से ये आठों गुण संपूर्ण रूप से प्रगट होते हैं । प्रधान रूप से इन ८ कर्मों का और इन ८ गुणों का ही व्यवहार होता है । फिर भी इन गुणों का ही अवान्तर गुणों सहित व्यवहार बढाने पर ३१ गुण भी बनते हैं।
१) दर्शनावरणीय कर्म की ९ प्रकृतियों के ९ प्रकार .... २) ज्ञानावरणीय कर्म की ५ प्रकृतियों के ५ प्रकार.... ३) आयुष्य कर्म की ४ प्रकृतियों के ४ प्रकार.... ४) अंतराय कर्म की ५ प्रकृतियों के ५ प्रकार.... ५) मोहनीय (दर्शन मो. + चारित्र मो.) २ प्रकृतियों के २ प्रकार.... ६) नामकर्म की (दर्शन मो. + चारित्र मो.) २ प्रकृतियों के २ प्रकार ..... ७) वेदनीय कर्म की (दर्शन मो. + चारित्र मो) २ प्रकृतियों के २ प्रकार ..... ८) गोत्र कर्म की (दर्शन मो. + चरित्र मो.) २ प्रकृतियों के २ प्रकार.....
.. कुल ३१ प्रकृतियों के ३१ प्रकार इस तरह विभाजन करने से कर्म की ३१ प्रकृतियाँ होती हैं और ३१ कर्मप्रकृतियों के क्षय से अवान्तर प्रकृतियों सहित की अपेक्षा से गिनने पर ३१ कर्मों के क्षय से ३१ गुणपूर्ण स्वरूप में प्रगट होते हैं । ये ३१ गुण भी एक एक मूल गुण के अवान्तर भेदसहित होंगे।
दूसरी एक और अपेक्षा भी इसमें अपेक्षित ली है- वह इस प्रकार है
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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