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चाहिए? जडद्रव्य-पुद्गलजन्य पौगलिक किसी भी वस्तु की आवश्यकता ही नहीं है। वहाँ मात्र आत्मा स्वशुद्ध स्वरूप में रहती है। और आत्मा के गुण सभी पूर्ण स्वरूप में आत्मा के साथ ही रहते हैं । बस, आत्मद्रव्य और ज्ञानादि गुण इस दो के अलावा अन्य कुछ भी वहाँ रहता ही नहीं है। पर्याय तो अन्तिम अवस्था के देहाकार स्वरूप में रहती है । अतः यहाँ संसार में से जो भी कोई मोक्ष में जाएगा उसे सब कुछ यहाँ से अर्थात् संसार में से ही मोक्ष में साथ ले जाना पडता है । मोक्ष में जाने के पश्चात किसी को केवलज्ञानादि कुछ भी प्राप्त नहीं होता है । सब कुछ यहाँ से ही साथ ले जाना पडता है । जिस समय जीव मोक्ष में चला जाता है । ठीक उसी समय वहाँ सिद्ध बनकर स्थिर बन जाता है। अब एक से दूसरे आकाश प्रदेश तक के स्थान पर गमन भी नहीं करना है । इतना भी जब नहीं हिलना है, तो फिर सवाल ही कहाँ रहा? बस, फिर तो स्वस्वरूपरमणता ही रहेगी। स्वभावरमणता का विशिष्ट स्वरूप अखण्ड रूप से रहता है । जीव उसी में रममाण करता रहता है । मोक्ष में क्या क्या चाहिए? १) केवलज्ञान, २) केवलंदर्शन, ३) वीतरागता, ४) अनन्तवीर्यादि, ५) अनामी, ६) अरूपी, ७) निरंजन-निराकारपना, ८) अगुरुलघुपना, ९) अनन्त-अव्याबाध सुख, १०) अक्षय स्थिति आदि अनेक गुणों की पूर्ण-संपूर्ण स्वरूप में आवश्यकता रहती है। और ये सभी गुण यहाँ से ही प्राप्त करके वहाँ साथ ले जाने पडते हैं । अनन्त भूतकाल में भी मोक्ष में जाकर किसी को केवलज्ञानादि की प्राप्ति नहीं हुई और वीतरागतादि भी मोक्ष में जाने के पश्चात् किसी को प्राप्त नहीं हुई । राजमार्ग यही है कि... अनन्तजीव यहाँ से ही केवलज्ञान वीतरागतादि सभी गुण संपूर्ण कक्षा के पाकर ही मोक्ष में गए हैं।
ये सभी गुण आत्मद्रव्य के सहज-स्वाभाविक गुण हैं । ये आत्मा की मूलभूत सत्ता में सत्रिहीत ही हैं। कहीं बाहर से आते ही नहीं हैं। एक मात्र कर्मों के क्षय होने से प्रगट होते हैं । १४ गुणस्थानों के सोपान क्रमशः कर्मक्षय के ही सोपान हैं । बस, ज्यों ज्यों कर्मों का क्षय होता जाता है, प्रमाण बढता जाता है, त्यों त्यों आत्मा के गुणों का प्रमाण बढता ही जाता है । १२ वे गुणस्थान पर वीतरागता, १३ वे गुणस्थान पर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तवीर्य आदि गुण प्रगट होते हैं- प्राप्त होते हैं। शेष गुण अघाती कर्मों के क्षय से प्रगट हो ही जाते हैं । अतः आत्मा सब कुछ–सभी गुणादि यहीं प्राप्त करके फिर मोक्ष में जाती है । ऐसे सिद्ध बननेवाले सभी सिद्धात्मा के ३१ गुण बताए गए हैं
सिद्धों के ३१ गुण-वैसे तो विभाजन करके आत्मा पर सिर्फ ८ ही कर्म हैं । इन ८ कर्मों से समस्त गुण आवृत्त रहते हैं। बस, उन आठों कर्मों से छुटकारा पाने पर आत्मा मुख्य आठ गुणों को प्राप्त करके अष्टगुणयुक्त बनती है । इनमें अनन्तचतुष्टयी में
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आध्यात्मिक विकास यात्रा