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________________ है। इसलिए नीचे से कर्मभूमिज आत्मा देह छोडकर ऊपर जाते समय अकर्म भूमि के ऊपरी आकाश में सिद्धात्मा जा ही नहीं सकती है। क्योंकि तिर्थी गति होनी संभव ही नहीं है । आत्मा की तिर्यक् गति कभी होती ही नहीं है । आकाश प्रदेशों की रचना हमारे बुने जाते कपड़ों के धागों की तरह बिल्कुल सीधे और आडे ही हैं। अतः आकाश प्रदेशों के आधार पर ही जीव और पुद्गल-परमाणु आदि की गति होती है । इससे सिद्ध होता है कि ...सिद्धशिला के ऊपर लोकान्त में भी अकर्मभूमि और ५६ अन्तर्वीप के भाग की जगह खाली होगी। और यदि अपवाद रूप भी कोई जीव अकर्मभूमि पर से मोक्ष गया होगा, तो वह वहीं स्थिर रहेगा। गति की दिशा भी नहीं बदलती है और लोकाग्र में जाकर स्थानान्तर-स्थान परिवर्तन भी नहीं होता है। १ रज्जु प्रमाण (१ राज लोक = असंख्य योजन) चौडी और १४ राजलोक लम्बी इतनी बडी त्रसनाडी के क्षेत्र में लोकान्त भाग में ऊपर भी १.राज का चौडा क्षेत्र है । लेकिन उतना बडा सिद्धशिला का मोक्ष क्षेत्र नहीं है। उन असंख्य योजनों के लोकान्त क्षेत्र के केन्द्र में सिर्फ २ ॥ द्वीप क्षेत्र अर्थात सिर्फ ४५ लाख योजन परिमित क्षेत्र में ही मोक्ष क्षेत्र है । सिद्धशिला भी सिर्फ ४५ लाख योजन ही है। अब आप ही सोचिए, असंख्य योजन के विस्तारवाले चौडे क्षेत्र में सिर्फ ४५ लाख योजन का क्षेत्र कितना छोटा... कितना सीमित-परिमित होगा? फिर इतने छोटे से परिमित क्षेत्र में अनन्त आत्माएँ सिद्ध बनकर रही हुई हैं। १२ अनुयोग द्वारों से सिद्ध स्वरूप की विचारणा__यद्यपि सिद्धों को गति, लिंग, क्षेत्र, कालादि एक भी वस्तु नहीं होती है । सिद्ध सर्वथा क्षेत्रादि सबसे परे हैं। अतः सिद्धों को क्षेत्रातीत, कालातीत आदि कहते हैं। कालातीत कहो या अकाल कहो दोनों बात एक ही है । वे सिद्ध सर्वथा अकाल है । काल के बंधन में बिल्कुल ही नहीं है । काल की किसी भी प्रकार की असर में नहीं है । अतः वे काल की दृष्टि से अनन्तकालीन कहलाते हैं । उनका सिद्धों का वहाँ रहने के काल का कभी अन्त आनेवाला ही नहीं है। अतः अनन्तकालीन स्थिति है मोक्ष में सिद्धों की । काल तत्त्व से भी वे ऊपर उठ चुके हैं । कालातीत या अकाल कहो। सिद्धावस्था में गति–कालादि भाव घट ही नहीं सकता है । क्योंकि ये सांसारिक भाव है। जबकि सिद्ध संसार से परे हैं। फिर भी गति-लिंग-क्षेत्रादि की १२ दृष्टियों से सिद्धों के विषय में जो विचार किया जाता है उसमें एक मात्र हेतु उनकी पूर्वावस्था का है। विकास का अन्त “सिद्धत्व की प्राप्ति" १४२७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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