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________________ केवलज्ञान हो चुका था और तीर्थ की स्थापना करने ही वाले थे कि... इस बीच के अन्तराल काल में मरूदेवी माता को केवलज्ञान हो गया, और आयुष्य अल्प शेष था । अतः आयुष्य पूर्ण होते ही मोक्ष में सिधारे-पधारे। ऐसी मरुदेवी माता श्री ऋषभदेव के केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद अंतर्मुहूर्त परिमित काल में ही केवलज्ञान पाई... और अन्तर्मुहूर्त परिमित काल में ही मोक्ष में भी चली गई। क्योंकि आयुष्य इतना ही था। अन्तर्मुहूर्त परिमित ही था। अतः वे. अंतगड केवली, अन्तःकृद् केवली कहलाए। ऐसे अन्तःकृद् केवली (अन्तगड केवली) तो अन्य बहुत हुए हैं। इनका वर्णन एक स्वतंत्र आठवे अंगसूत्र आगम शास्त्र में है । पूरा आगम ही उनके वर्णन का भरा हुआ है। लेकिन ऐसे अन्तःकद केवली तीर्थसिद्ध है या अतीर्थसिद्ध? अभी तक शास्त्रों में एक मात्र मरुदेवी माता के सिवाय अन्य किसी का अतीर्थ अन्तःकृकेवली का नाम नहीं मिलता है । भ० ऋषभदेव के तीर्थ स्थापन काल के पहले ही ... अतीर्थकाल में ही मोक्ष में पधारे हैं मरुदेवी माता । अतः वे अतीर्थ सिद्ध ही कहलाएंगे। क्योंकि अभी तक धर्मतीर्थ की स्थापना ही नहीं हुई है और कोई मोक्ष में चला जाय तो वह जीव तीर्थंकर के शासन में तीर्थकाल में कैसे गिना जाएगा? नियम यह है। कि..."तीर्थ" शासन काल में ही कोई मोक्ष में जा सकता है । अन्यथा नहीं । लेकिन यहाँ मरुदेवी माता के लिए नियम नहीं पला, अपवाद बना । अतः वे अतीर्थसिद्ध कहलाए।' इसी तरह तीर्थस्थापना के पश्चात् यह तीर्थ अर्थात् प्रभु का संस्थापित शासन .... तीर्थंकर की विद्यमानता तक ही चलता है ऐसा नियम नहीं है । तीर्थंकर का आयुष्य तो सीमित-मर्यादित ही रहता है । जबकि उनके द्वारा संस्थापित तीर्थ-शासन तो भविष्य में परम्परा में होते रहनेवाले अनेक पट्टपरंपरा के महापुरुष चलाते रहते हैं । निरंतर-अखण्ड रूप से । गुरु के शिष्य-प्रशिष्यादि जो होते रहते हैं... फिर उस शिष्यों के भी शिष्य प्रशिष्यों के भी शिष्य जो अखंड रूप से परंपरा में निरंतर होते ही रहते हैं उसके काल में शासन-तीर्थ भी निरंतर अखण्डरूप से चलता ही रहता है । काफी लम्बे काल तक चलता ही रहता है इस धर्मतीर्थ के काल में,शासन के काल में अनेक आत्मा धर्म पाकर, समझकर, स्वीकार कर, आचरण करके अपनी आत्मा का कल्याण करते ही रहते हैं। जैसे भ० ऋषभदेव प्रभु का तीर्थ असंख्य युगपुरुषों की परंपरा तक और असंख्य काल तक चलता ही रहा। जैसे भ० महावीर का आयुष्य काल ७२ वर्ष का था। उसमें विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति" १३९९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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