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स्पष्ट रूप से समझ सकें । इसी हेतु से पहले देना मुनासिब समझा कि जिससे आगे जहाँ जहाँ भी भूगोल-खगोलादि लोक संबंधि विषय जब भी आए तब समझने की सुविधा अच्छी रहे ।) ग्रन्थकार महर्षीने “लोकान्त” शब्द का प्रयोग किया है । तथा “सिद्धाणं बुद्धाणं” सूत्र में “लोअग्ग मुवगयाणं” में “लोकाग्र” शब्द का प्रयोग किया है । लोक का “अग्र” और लोक का “अन्त” इन दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है। आखिर दो में से कौन सा शब्द सही और कौन सा गलत है ? तात्पर्यार्थ देखने पर दोनों शब्द सही हैं। एक भी गलत नहीं है । दोनों एक ही अर्थ का निर्देश करते हैं । अन्त शब्द से लोक का अन्त अभिप्रेत है । लेकिन किस दिशा का अन्त लेना? क्योंकि अनन्त अलोक के मध्य में आकाश में लटकते हुए त्रिशंकु की तरह संपूर्ण लोक लटक रहा है । इसलिए किसी भी दिशा में जाने पर लोक का अन्त तो आएगा ही। इस तरह चारों दिशा में जाने पर भी अन्त तो आएगा ही। विदिशा में जाने पर भी अन्त आता है, और ऊर्ध्व अधो दिशा में जाने पर भी अन्त आता ही है ।
इसलिए आत्मा किसी भी दिशा में जाती है ऐसा अर्थ निकल सकता है। लेकिन यह बैठता नहीं है। इससे अधो दिशा में अन्त या ऊर्ध्व दिशा में अन्त या क्या समझना? अधो दिशा में मुक्त आत्मा का गमन तो वैसे भी संभव नहीं है। क्योंकि कर्म के भार से भरी हुई या दबी हुई हो तो ही आत्मा का अधोगमन होता है। अनेक प्रकार के भारी कर्म करके तो आत्मा अनन्त बार अधो लोक में नरक में जाकर आई है। अब तो सर्वथा कर्मरजरहित ही हो चुकी है
आत्मा । अतः नीचे अधो दिशा में जाने का कोई प्रयोजन ही नहीं रहता है । इसी अन्य किसी दिशा या विदिशा में भी जाने का सवाल ही नहीं खडा होता है। इसलिए “लोकाग्र" शब्द का निर्देश किया है । लोक का अग्र भाग कहा है । अग्र भाग से सीधा अर्थ लोक के ऊपर का आगे का भाग । यही अभिप्रेत है।
यह समस्त लोक जो १४ रज्जु परिमित है । इसलिए १४ राजलोक प्रमाण समस्त लोक क्षेत्र है। चित्र सामने रखने पर स्पष्ट हो जाता है कि अग्रभाग कौन सा होता है? कहाँ होता है ? अग्र शब्द भी ऊपर के भाग का सूचक है । और आत्मा का सीधे ऊर्ध्वगमन
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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