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अध्याय १८
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विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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प्रस्तुत पुस्तक न तो अवकाश यात्रा की है, या न ही तीर्थयात्रा की है। परन्तु “आध्यात्मिक विकास यात्रा” की है। यह इस प्रकार की आध्यात्मिक विकास यात्रा जो निगोद की प्राथमिक कक्षा से प्रारम्भ हुई है और अब अन्तिम चरण में प्रवेश कर रही है। गुणस्थानों के इन १४ सोपानों रूपी पटरियों पर से गुजरती हुई सीधी मुक्ति के धाम में जाकर रुकती है । पूर्ण होती है । अतः आत्मा की इस विकास यात्रा का प्रथम छोर... यदि निगोदावस्था का है तो अन्तिम छोर मुक्ति का धाम है । ऐसी यह १४ गुणस्थान की लम्बी रस्सी है जिसके ये दो किनारे हैं । बीच की लम्बाई काफी है । इसी यात्रा को करती हुई अनन्त आत्माएँ मुक्ति के धाम में पहुँच कर सिद्ध बन चुकी हैं । बस, यही मार्ग हमारे लिये भी है। गुणस्थानों के सोपानों का - शाश्वत मार्ग
याद रखिए, १४ गुणस्थानों के सोपानों का यह मार्ग शाश्वत मार्ग है । अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करने के उपाय रूप में शाश्वत मार्ग है । इसलिए १४ गुणस्थान का यह मार्ग किसी को बनाना नहीं पड़ता है। किसी ने नहीं बनाया। यह तो जो मोक्ष में जाते हैं उनके जाने से बन जाता है । आत्मा का मार्ग है । हम कैसे कहें कि... यह महावीर स्वामी ने बनाया है या पार्श्वनाथ ने बनाया है । जी नहीं। भगवान महावीर के पहले भी अनन्त जीव मोक्ष में जा चुके हैं। इसलिए इन अनन्तों में से किसका नाम सूचित करेंगे? शायद आप कहेंगे कि... आदिनाथ–ऋषभदेव ही सर्वप्रथम मोक्ष में गए होंगे? जी नहीं। ये तो वर्तमान कालचक्र के इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान हैं अतः इस काल की कालिक अपेक्षा से प्रथम मोक्षगामी मानना या कहना संभव है । लेकिन ऋषभदेव के भी पहले बीती हुई अनन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के काल में अनन्त आत्माएँ मोक्ष में जा चुकी हैं। अतः जो भी जब भी मोक्ष में गए हैं वे सभी इन गुणस्थानों के सोपानों पर चढते हुए ही क्रमशः कर्मक्षय करते हुए मोक्ष में गए हैं । अतः यही शाश्वत मार्ग है। इसके व्यतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है । विकल्प ही नहीं है ।
विकास का अन्त "सिद्धत्व की प्राप्ति"
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