SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 360
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ I होगा : तब वह दीक्षा के योग्य बनेगा । ८ वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण करके फिर अपनी ध्यानादि की साधना तपश्चर्या आदि करेगा। नौं वर्ष का होने पर चारों घनघाती कर्मों का क्षय करके इसी क्रम से गुणस्थानों की श्रेणी पर एक एक गुणस्थान के सोपान चढते हुए १३ वे गुणस्थान पर आकर केवलज्ञान पाकर केवली बनता है । अतः पूर्व क्रोड वर्ष के काल में ८ वर्ष न्यून (कम) की गणना की गई है। बाकी आगे का काल पूरा ही है । आजीवन पर्यन्त का लम्बा काल काफी है । इस तरह १३ वे गुणस्थान पर पूर्व क्रोड वर्षों का दीर्घ काल है । “पूर्व” शब्द यहाँ पर निर्धारित वर्षों के काल की संज्ञाविशेष है । वर्ष-वर्ष का काल बढ़ते-बढ़ते हजारों वर्ष, लाखों वर्षों का काल बीतता जाता है । उसमें ८४ लाख वर्ष जब हो जाते हैं तब उसे १ पूर्वांग कहते हैं । पूर्व का भी एक छोटा अंग उसे पूर्वांग कहते हैं। पूर्व पूर्वांग से बडा कालमान है । ऐसे पूर्वांग भी आगे बढते - बढते हजारों लाखों पूर्वांग होते जाते हैं । अतः १ पूर्व = बराबर - ७०५६० अरब वर्ष होते हैं । इतने वर्षों का यह काल अभी तो १ पूर्व का हुआ है । और पूर्व भी वर्षों की गणना में और आगे बढते ही जाय... वे भी हजारों पूर्व, लाखों पूर्व और फिर करोड (क्रोड) पूर्व का भी काल हो जाता है । इतने पूर्व क्रोडवर्षों का काल १३ वे गुणस्थान पर केवलज्ञानी का रहना है । यह तो जिनका इतना लम्बा आयुष्य पहले से ही बांधा हुआ रहता है उसका काल इतना होता है । यह उत्कृष्ट से केवली के १३ वे गुणस्थान पर रहने का आयुष्य काल है । इसमें ८ वर्ष न्यून समझने चाहिए । लेकिन सब केवलियों का काल इतना लम्बा होता ही है ऐसा नहीं है। यह उत्कृष्ट काल है । किसी का उत्कृष्ट आयुष्य इतना हो और उनका केवलज्ञान नौंवे वर्ष में पाने के पश्चात् का आयुष्य काल इतना हो सकता है। अन्यथा कम होता है । मध्यम आयुष्य तथा जघन्य से भी केवली का काल इस गुणस्थान पर रह सकता है । तीर्थंकर भगवंतों के लिए अलग ही नियम है। तीर्थंकर भगवंतों का इतना लम्बा उत्कृष्ट आयुष्य नहीं होता है अतः वे मध्यम कक्षा के आयुष्यवाले होते हैं । इसलिए तीर्थंकर बननेवालों का १३ वे गुणस्थान पर का काल देशोन १ लाख पूर्ववर्ष जितना ही होता है । इस अवसर्पिणी काल में १ ले तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान का ८४ लाख पूर्व का कुल आयुष्य काल था । उसमें से ८३ लाख पूर्व वर्षों का काल तो संसार के गृहस्थाश्रम में ही बीत गए । ८४-८३ = १ लाख पूर्व का काल शेष रहने पर उन्होंने संसार से महाभिनिष्क्रमण करके दीक्षा ग्रहण की। और १००० वर्ष तक छद्मस्थावस्था में रहे । उसके बाद केवलज्ञान हुआ। अतः वे १३ वे गुणस्थान पर केवली के रूप में १ लाख पूर्व आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १३१७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy