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स सर्वातिशयैर्युक्तः, सर्वामरनरैर्नतः। चिरं विजयते सर्वोत्तमं तीर्थं प्रवर्तयन् ।। ८६ ।। वेद्यते तीर्थकृत्कर्म, तेन सद्देशनादिभिः।
भूतले भव्यजीवानां, प्रतिबोधादि कुर्वता ।। ८७ ।। गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थकार महर्षि लिखते हैं कि...वीशस्थानक तप तथा सर्वजीव कल्याण के प्रबल भाव पूर्वक उत्कृष्टकक्षा की आराधना करके जिसने तीर्थंकर नामकर्म की श्रेष्ठतम पुण्यप्रकृति उपार्जित की हो वह महानात्मा उसके पुण्योदय होने से १३ वे गुणस्थान पर आकर सर्वज्ञ केवली बनते हैं। तीनों भुवन में सबके पूजनीय-पूज्य त्रिभुवनपति तीर्थंकर भगवान बनते हैं। ऐसे भगवान ३४ अतिशयों से शोभनीय बनते हैं। सर्वोत्कृष्ट तीर्थ प्रवर्ताते हुए विचरते हैं। पूर्व में बांधा कर्म उदय में आने पर... वेदना-भुगतनी तो पडती ही है । अतः उस कर्म के वेदन काल में कैसे वेदेंगे भगवान् ? अतः यहाँ श्लोक में स्पष्ट लिखते हैं कि... तीर्थंकर भगवान देशना देते हैं। देवता गण समवसरण-अतिशय की रचना करते हैं। उसका भी उपभोग करते हैं अर्थात् नौं सुवर्कमलों पर विचरते हैं । समवसरण में बैठकर देशना देते हैं । इस अवनितल पर निरंतर सर्व जीवों को प्रतिबोधित करते हए विचरते हैं। अपनी कल्याणकारी देशना द्वारा भव्य जीवों को सम्यक्त्व की प्राप्ति कराते हैं, देशविरतिधर्म दिलाते हैं । धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं । चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं । यह तारक तीर्थ तथा संघ उनकी उपस्थिति में भी हजारों लाखों वर्षों तक भी जगत् के सर्व जीवों का कल्याण करते रहेंगे । इस तरह वे अपने तीर्थंकर नामकर्म की पुण्यप्रकृति का वेदन करते हैं । उदीरणा उन्हें नाम-गोत्र इन दो कर्मों की करनी पड़ती है । न हो तो न भी करे । और अब निर्जरा ४ अघाती कर्मों की ही करनी है।
१३ वे गुणस्थान का स्थिति-काल
उत्कर्षतोऽष्टवर्षानं पूर्वकोटिप्रमाणकम् ।
कालं यावन्महीपीठे, केवली विहरत्यलम् ।। ८८ ॥ सभी गुणस्थानों का अपना-अपना जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति काल रहता है । इस १३ वे गुणस्थान का उत्कृष्ट स्थिति काल कुछ कम ऐसा पूर्वक्रोड वर्षों का है। कुछ कम से तात्पर्य यह है कि पूर्वक्रोडवर्ष में ८ वर्ष कम । क्योंकि कोई भाग्यशाली इस अवनितल पर जन्म लेगा, वह बाल्यावस्था बिताएगा । बालक की वृद्धि होगी और आठ वर्ष का
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आध्यात्मिक विकास यात्रा