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________________ है I । ४ थे चित्र में— अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अवधि- ज्ञान प्रगट हुआ दिखाई देता है । और ५ वे चित्र में मनः पर्यव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने से मनःपर्यव ज्ञान प्रकट होता है। ये चारों ज्ञान उनके ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने से प्रगट होते हैं । परन्तु पाँचवाँ केवलज्ञानावरणीय कर्म संपूर्ण क्षायिक भाव से कर्म क्षय हो जाने पर .... . संपूर्ण ज्ञान प्रगट होता है । इसे केवलज्ञान कहते हैं । केवलज्ञान जैसे पूर्ण ज्ञान हो जाने के पश्चात् शेष चारों ज्ञानों की आवश्यकता ही नहीं रहती है । अतः वे इसी बडे ज्ञान में सूर्य तेज में दीपक के प्रकाश की तरह समा जाते हैं । • १) मतिज्ञान - मन + इन्द्रियों से होनेवाला -बुद्धि का ज्ञान । २ ) श्रुतज्ञान - मन + इन्द्रियों से मतिज्ञानपूर्वक होनेवाला शास्त्रज्ञान । ३) अवधिज्ञान- मन + इन्द्रियों से रहित प्रत्यक्ष रूप से होनेवाला दूर - सुदूर का ज्ञान ४) मनः पर्यवज्ञान - मन + इन्द्रियों से रहित प्रत्यक्ष रूप से संज्ञि जीवों के मनोगत विचारों को जानने का ज्ञान । A 1 ५) केवलज्ञान - सर्वथा मन और इन्द्रियों की मदद के बिना आत्मा को प्रत्यक्षरूप से होनेवाला समस्त लोक— अलोक के अनन्त द्रव्य - गुण - पर्यायों का त्रैकालिक शाश्वत ज्ञान - केवलज्ञान है । केवलज्ञान क्षायोपशमिक भाव से नहीं होता है । यह क्षायिक भाव से ही होता है । सर्वथा संपूर्ण रूप से ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वांशिक क्षय से ही होता है । कुछ अंश कर्म का क्षय और कुछ अंश उपशम ऐसे होने को क्षयोपशम कहते हैं । जबकि क्षायिक भाव में उसके आवरक कर्म का सर्वथा संपूर्ण सर्वांशिक क्षय होने पर ही केवलज्ञान प्राप्त होता है । बस, इससे समस्त लोक और अलोक के अनन्त द्रव्य, उनके अनन्त गुण, अनन्त पर्यायें तीनों काल में एक साथ जानी जा सकती हैं। ऐसा क्षायिक भाव का ज्ञान एक बार प्रगट हो जाने के पश्चात् पुनः कभी नहीं आवृत्त होता । कभी भी नष्ट नहीं होता । अतः अनन्तकाल के लिए समान रूप से एक जैसा - एक सरीखा - नित्य नया जैसा ही रहता है । आत्मा का स्थानान्तर अढाई द्वीप की १५ कर्मभूमियों में से लोकाग्र भाग में सिद्धशिला पर हो जाय, वहाँ पहुँचकर आत्मा सिद्ध बन जाने के पश्चात् अनन्तकाल तक सिद्धत्व भाव के साथ साथ केवलज्ञान समान रूप से वैसा ही अस्तित्व में रहता है । उस सत्ता का अभाव कभी भी नहीं होता । 1 आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२९९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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