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________________ शाश्वत है। निश्चित कालीन है । अतः इसे पाना ही चाहिए। आचरना ही चाहिए। इसके बिना केवलज्ञान होगा ही नहीं । लेकिन बाहरी जितने भी निमित्त हैं उन सब के बिना केवलज्ञान हो सकेगा। लेकिन शुक्लध्यान- क्षपक श्रेणी आदि के बिना तो कभी केवलज्ञान होना संभव ही नहीं है। इसलिए इन अनेक दृष्टान्तों में दिखाई देते हुए बाहरी निमित्तों को पाने की भूल से भी इच्छा मत करो I आखिर केवलज्ञान पाने का राजमार्ग देखना हो तो जिस तरह, जिस तरीके से तीर्थंकर परमात्मा ने केवलज्ञान पाया है उनकी साधना पद्धति देखिए... उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया उस तरीके से हमें भी करना चाहिए। वही सही राजमार्ग है । तीर्थंकरों को केवलज्ञान की प्राप्ति-एक शाश्वत मार्ग वर्तमान चौबीशी में भगवान आदिनाथ से महावीर स्वामी तक के २४ तीर्थंकर हुए हैं। ऐसी इसके पहले की चौबीशी हुई है। और उसके भी पहले और हुई है । इसतरह भूतकाल के अनन्त काल में अनन्त चौबीशीयाँ हुई हैं। आगे के भविष्य काल में भी अनन्त चौबीशीयाँ और होने ही वाली हैं। इसमें कोई संदेह ही नहीं है। तीर्थंकरों का होना यह शाश्वत मार्ग है। त्रैकालिक शाश्वत नियम है। इसी तरह तीर्थंकरों को केवलज्ञान की प्राप्ति होना यह भी शाश्वत नियम है। बिना केवलज्ञान हुए कोई तीर्थंकर बने ही नहीं है ! और भविष्य में भी बनेंगे ही नहीं । केवलज्ञान प्राप्त करना तीर्थंकर भगवंतों के लिए अनिवार्य होता ही है । यह शाश्वत नियम है। केवलज्ञान पाकर सर्वज्ञ - सर्वदर्शी वीतरागी बनकर ही तीर्थंकर भगवान समवसरण में बैठकर देशना देंगे। तभी वे तीर्थंकर कहलाएंगे । अतः शाश्वत नियम एवं शाश्वत व्यवस्था क्या क्या है? कितनी है ? वह यहाँ क्रम दर्शाता हूँ उससे आपको ख्याल आ जाएगा । १) पूर्व के तीसरे भव में तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित करना । २) तीर्थंकर बनने के पहले के भव में देव या नारकी भव में जन्म । ३) मति, श्रुत, अवधि इन ३ ज्ञान से युक्त होकर जन्म लेना । ४) जन्मकल्याणक में इन्द्रादि देवताओं द्वारा मेरु पर्वत पर अभिषेक । ५) ५६ दिक्कुमारिकाओं द्वारा सूतिका कर्मादि । ६) अवश्य - अनिवार्य रूप से संसार त्याग कर दीक्षा ग्रहण करना । ७) दीक्षा के समय स्वयं ही दीक्षा लेना, किसी का भी गुरु न होना । ८) दीक्षा के दिन ही. . चौथा मनःपर्यव ज्ञान होना । .... १२९४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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