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________________ अपने ललाट पर हथेली रखकर, या कानपट्टी वाले ललाट भाग पर हाथ की अंगुली रखे हुए स्थिर बैठा-बैठा कुछ भी विचार करें, ऐसी स्थिति में क्या पता चले कि यह चिन्ता कर रहा है कि चिन्तन? बाह्य स्वरूप में समानता होते हुए मात्र आन्तरिक स्थिति में ही भेद है । आखिर क्या भेद है? दोनों विचारात्मक होते हुए भी विषय पर आधार रहता है। किस विषय के विचार चल रहे हैं ? ज्ञान जैसे ज्ञेय पदार्थों के साथ संलग्न हैं। किस प्रकार के ज्ञेय पदार्थों को आधार बनाकर ज्ञान की धारा चल रही है उन विषयों के विचार चलते रहते हैं । इसलिए चिन्ता और चिन्तन दोनों के ज्ञेय विषय का क्षेत्र ही सर्वथा भिन्न है । चिन्ता के विषय मेंपत्नी–पुत्र-परिवार, धन-व्यापारादि का प्रधान रूप से संबध रहता है । जबकि...चिन्तन की धारा के लिए आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, धर्म, जिनवचन आदि अनेक विषय रहते हैं इस तरह दोनों का विषय-क्षेत्र सर्वथा भिन्न है। कभी कोई ऐसा नहीं कह सकता है कि... मैं मेरी पत्नी का चिन्तन करता हूँ । पुत्री बड़ी हो चुकी है उसका, या पुत्र की शादी के बारे में चिन्तन कर रहा हूँ। जी नहीं, पत्नी-पुत्र-पुत्री और शादी आदि निमित्त चिन्तन करने योग्य नहीं हैं । ये सब चिन्ता के विषय हैं । वह ऐसे कह सकता है कि मैं मेरी पत्नी के बारे में, पत्री की शादी नहीं हो पा रही है, पुत्र का रोग नहीं मिट रहा है, इस तरह चिन्ता करता हूँ। ठीक इसी तरह कोई ऐसा भी नहीं कह सकता है कि...मैं भगवान की चिन्ता करता हूँ। या मैं मोक्ष की चिन्ता करता हूँ । या मैं मेरी आत्मा की चिन्ता करता हूँ । जी नहीं । यहाँ चिन्ता शब्द का प्रयोग ही गलत है। चिन्तन शब्द ही सुयोग्य है। क्योंकि आप भगवान की चिन्ता क्या करोगे? कुछ भी नहीं, अतः आप परमात्मा का चिन्तन करिए, स्व आत्मा का भी चिन्तन करिए, और मोक्षादि विषयों का भी चिन्तन करिए । यही उचित है। ध्यान की पद्धति चिन्तन भी विषयरूप होने से विचार करने योग्य है । और चिन्ता भी विषयात्मक होने के कारण विषयानुरूप विचार करने योग्य है । अतः चिन्ता को रोकना और चिन्तन की प्रक्रिया को बढाना ही ज्यादा श्रेयस्कर है। चिन्ता को रोकना और चिन्तन को बढाना यही ध्यान में प्रवेश करने की भूमिका है तो फिर प्रश्न उपस्थित होगा कि ध्यान और चिन्तन में क्या अन्तर है ? क्या ध्यान ही चिन्तन है ? और चिन्तन ही ध्यान है ? या क्या ऐसा कहा जा सकता है कि जो जो ध्यान है वह वह चिन्तन है या जो जो चिन्तन है वह वह ध्यान ९९२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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