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________________ फिरता ही रहता है । इसमें इतने ज्यादा विषयों के विचार इतनी तीव्रता के साथ इकट्ठे हो जाते हैं कि किस किस विचार के आनन्द को लूटेंगे आप? जैसे द्रुतगति से चलती हुई डबल फास्ट या, सुपरफास्ट ट्रेन चलती हो, उस समय कितने भी रेल्वेस्टेशन आकर चले जाय तो किस रेल्वे स्टेशन के दृश्य को देखने का आनन्द आपको आएगा? इतना सरल दृष्टान्त तो एक छोटा बच्चा भी समझ सकता है । या दूसरा दृष्टान्त देखिए--- आप सिनेमा देखते ही हैं । उसमें प्रोजेक्टर पर मोटर द्वारा रील चलती है और सामने के परदे पर ... प्रोजेक्शन द्वारा चित्र की छाप पडती है । यदि मोटर संपूर्ण तेज गति से फास्ट दौडाई जाय तो क्या परदे पर के छायाचित्र को देखकर आप आनन्दित हो सकेंगे? जैसे कि वीडियो वी. सी. आर में कैसेट डालकर उसे फुलस्पीड में फास्ट आगे दौडाई जाय तो एक साथ कितने ही दृश्य निकल जाएंगे। उस समय देखनेवाले को कैसे मजा आएगी? कुछ भी ख्याल नहीं आएगा। ठीक उसी तरह यहाँ भी यही होता है । एक साथ अनेक विचार माला की तरह प्रवाहबद्ध आते ही रहेंगे तो किसी भी विचार का आनन्द कैसे आएगा? और एक क्षणभर के लिए ही विचार और उसी एक क्षण के लिए सुख भी रहेगा। ऐसी स्थिति में विचारक व्यक्ति ऊब जाएगा। परेशान हो जाएगा। हो सकता है कि वह अपने ही विचारों से परेशान हो जाय । ऐसी स्थिति में पागलपन की भी संभावना बढ़ जाती है। अतः स्वस्थ मनवाले का लक्षण है कि सीमित-मर्यादित विचार कर पाए। विचारों में स्थिरता आ सके । और विचार रुक सके । एक के पीछे एक तेज गति से विचार न आए। जी हाँ, ध्यान विचारात्मक है और प्रत्येक विचार ध्यानात्मक है। लेकिन वह ध्यान शुभ भी हो सकता है और अशुभ भी हो सकता है । इसलिए ध्यान शब्द विचार करने, सोचने, चिन्तन करने आदि अर्थ में प्रयुक्त है। चिन्ता और चिन्तन संसार में चिन्ता और चिन्तन इन दोनों स्थितियों का अस्तित्व है । सभी लोग इनसे अच्छी तरह परिचित हैं । आखिर दोनों विचारात्मक ही हैं । चिन्ता करनेवाले को भी विचार ही करना है । और चिन्तन करनेवाले को भी विचार ही करना है। विचारधारा की प्रक्रिया दोनों में समानरूप है । प्रश्न यह उठता है कि तो फिर दोनों में भेद क्या है क्या चिन्तन करनेवाले को चिन्ता करता है ऐसा कहा जा सकता है ? या फिर चिन्ता करनेवाले को चिन्तन करता है ऐसा कहा जा सकता है ? जी नहीं। हो सकता है कि दोनों के बाह्य स्वरूप में समानता भी दिखाई दे । जैसे कि कहीं समंदर के किनारे पर बैठे मनुष्य को देखिए वह ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" ९९१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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