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________________ सामान्य खेल नहीं है। हमारे पूर्वज महापुरुष कितने ऊँचे आदर्शरूप थे? आज हजारों लाखों वर्षों के बाद भी उस दृश्य को याद भी करें तो सही अर्थ में सिर झुक जाता है। खूनी-हत्यारा भी केवलज्ञान पाया- जीर्णदत्त ब्राह्मण का पुत्र यज्ञदत्त बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् व्यसन–शिकारादि में लंपट बनकर चोरों की टोली में मिल गया। चोर पल्लीपती ने उसे बलिष्ठ जानकर अपनी गादी पर बैठाया । अर्थात् चोरों का नायक पल्लिपती बनाया। उस बलिष्ठ का एक प्रहार इतना खतरनाक रहता था कि सामनेवाला मृत्यु पा जाता था। इसलिए दृढप्रहारी नाम ही प्रसिद्ध हो गया। एक बार सभी कुशस्थल नगरी लूटने गए । देवशर्मा ब्राह्मण के घर धावा बोला। देवशर्मा जंगल से उसी समय घर लौटा और लकडी से मारने दौडा । इतने में दृढप्रहारी ने प्रबल शक्ति से प्रहार किया और उसके धड से सिर अलग कर दिया। इस बीच एक गाय अपने सींग से मारने आई तो उसे भी दृढप्रहारी ने मार डाला। अन्त में गर्भवती ब्राह्मणी स्त्री दौडकर बाहर आई तो दृढप्रहारी ने उसके पेट पर ही प्रहार किया अतः क्षणभर में वह स्त्री तथा गर्भस्थ शिशु दोनों के प्राण पँखेरू उड गए। इस तरह गाय, स्त्री, ब्राह्मण और भ्रूण जैसे चार-चार की हत्या कर चुका वह दृढप्रहारी ब्राह्मण के उस तडपते गर्भस्थ शिशु को देखकर उसके दिल में कंपन हो उठा। क्रोध शान्त होने के पश्चात् पश्चाताप की आग बढने लगी । परिणाम स्वरूप तारक तपस्वी साधु मुनि के शरणों में पहुँचा । पश्चाताप भाव की योग्यता दिखाकर उसने मुनि से चारित्र ग्रहण किया। चोर-खूनी हत्यारे में से साधु बनकर दृढप्रहारी ने पाप धोने के संकल्प से कठोर अध्रिग्रह धारण किया कि जब तक मुझे मेरे पाप याद आएंगे तब तक . . . आहार-पानी ग्रहण नहीं करूंगा। मुनि समझकर उसी मोहल्ले-गली में पुनः भिक्षा लेने जाते हैं । ग्रामवासी पहचान कर ढेला मारते हैं। फिर भी सहनकर अपने पाप कर्मों को खपाने में समभाव रखते हैं। शान्ति-क्षमा-समता-तपश्चर्या सब इकट्ठे हो गए । अब ध्यान भी जोड दिया और ध्यान की धारा भावनाओं के चिंतन के साथ आगे बढी... । धर्म से शक्ल होते हए ध्यान ने क्षपकश्रेणी शुरू कर दी । कर्म ध्यानाग्नि में जलकर भस्मीभूत होने लगे। परिणाम स्वरूप केवलज्ञान पाकर १३ वे गुणस्थान के सोपान पर आरूढ होकर सदा के लिए मोक्ष में पधारे । घोर हत्या-खून-हिंसा-झूठ-चोरी आदि के सभी पाप जो घोर नरक में ले जानेवाले थे उनकी बाजी बदल कर कर्म खपा कर उसी भव में मोक्ष पाना कोई आसान खेल नहीं था। . १२८० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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