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________________ हम हमारी भाषा में ऐसा कह सकते हैं कि अरिहंत की आत्मा या अन्य केवलज्ञानादि पानेवाली आत्माएँ आधी मुक्त बन गई हैं । घाती कर्म सर्वथा संपूर्ण सर्वांश से जडमूल से क्षय हो चुके हैं । अब ये कर्म पुनःबंधनेवाले नहीं हैं। क्योंकि क्षायिक भाव से वीतरागता आदि गुण प्रगट हुए हैं । याद रखिए, क्षायिक भाव से जो भी एक बार प्राप्त हो जाय वह सदाकाल स्थायीभाव से रहता है । टिकता है । वह कभी नष्ट नहीं होता । वापिस चला नहीं जाता । वीतरागता भी अनन्त स्वरूप में प्राप्त हुई है। यह गुण अनन्तगुना आत्मा की मूल सत्ता में व्याप्त है । इसलिए इसका प्रादुर्भाव या प्रगटीकरण भी अनन्त स्वरूप में प्रगट हुआ है । ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वथा क्षय होने से क्षायिक भाव के कारण प्रगट हुआ ज्ञान भी अनन्त स्वरूप में प्रगट हुआ है । ज्ञान कितना अनन्त है यह तो केवलज्ञान का स्वरूप समझने पर ही समझ में आएगा। इतना अनन्त ज्ञान... जो अनन्त काल तक छिपा रहा, दबा रहा, यह एक मात्र ज्ञानावरणीय कर्म के कारण । इसलिए कह सकते हैं कि ज्ञानावरणीय कर्म कितना था? अनन्तगुना ज्ञानावरणीय कर्म था। तभी तो अनन्त ज्ञान को ढक सका। सोचिए ! एक तरफ तो अनन्त गुना ज्ञानावरणीय कर्म और दूसरी तरफ अनन्त काल तक आत्मप्रदेशों पर अपनी पक्कड जमाकर बैठा रहा । आत्म गुण ज्ञान का गला घोंटकर दबाकर उसे बाहर न आने देते हुए, प्रगट न होने देते हुए ढक कर रखा । फिर भी यह तो आत्मा की अनादि-अनन्त स्थिति की सत्ता के कारण ये गुण आत्मा की सत्ता में सदाकाल रहे। दूसरी तरफ आत्मा एक ऐसा अनादि-अविनाशी-अनन्तकालीन अस्तित्ववाला द्रव्य था इसलिए यह अनन्तकाल तक टिका रहा तो ये गुण भी उसके साथ ही टिके रहे। यदि पद्गल की तरह विनाशी या नाशवंत द्रव्य होता तो कब का नष्ट हो जाता, आत्मा का अस्तित्व ही मिट जाता । तो फिर ज्ञानादि गुण किसके आधार पर टिकते? बिना आधार के आधेय कैसे रहे? गुण तो द्रव्य के आधार पर ही रहते हैं । बिना द्रव्य के आधार के ये गुण कभी स्वतंत्र अलग से रह ही नहीं सकते हैं । इसलिए त्रैकालिक अस्तित्व धारक आत्मा द्रव्य के आधार पर ज्ञानादि गुण भी आत्मा से अभिन्न एकरस होने के कारण वे भी सत्ता में अनन्त काल से टिके रहे हैं। सोचिए ! आत्मा से सर्वथा विपरीत विरुद्ध गुणधर्मवाला कर्म भी अनन्त काल तक आत्मा पर रहा । वह भी आत्मा के प्रदेश तो सिर्फ असंख्य ही हैं और कार्मण वर्गणा ने अपने अनन्त परमाणुओं का आवरण-कवच बनाकर सभी प्रदेशों को दबा दिया। एक भी आत्म प्रदेश को खुल्ला नहीं रखा। इन ज्ञानादि गुणों का सर्वथा घात कर दिया। फिर भी इस आत्म द्रव्य की ही कुछ ऐसी विशेषता रही कि जिसके कारण ज्ञानादि गुण अनन्तकाल तक अपने विरोधी-अरे अपने शत्रुरूप ऐसे कर्मों आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२६३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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