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कर्मक्षयजन्य ११ अतिशय
१) देव - मनुष्य - तिर्यंच १ योजन में समाते हैं-- देशनाश्रवणार्थ १ योजन परिमित भूमि में देवता जो समवसरण बनाते हैं उसमें करोडों मनुष्य - देवतादि जीवों का समावेश हो सकता है । पशु-पक्षी आदि सबका समावेश हो जाता है ।
२) योजनगामिनी वाणी - समवसरण में देशना देने के समय प्रभु की वाणी १ योजन के परिसर में स्पष्ट रूप से सबको सुनाई देती है । एवं समझ में आती है। सभी श्रोताओं के निज-निज भाषा में परिणमती है ।
३) भामण्डल - घाती कर्मों के आवरण का सर्वक्षा क्षय हो जाने के कारण अनन्तज्ञानादि गुण अनन्त स्वरूप में प्रगट हुए रहते हैं । तथा मुखारविंद अनेक सूर्य इकट्ठे हो जाय इतने तेजःपुंज से चमकता है । अतः देशना श्रवण करते समय कोई भी देख नहीं पाएगा, और न देख सकने के कारण श्रवण में एकाग्रता नहीं आएगी, इसलिए देवता परमात्मा के देह से निकलते तेजःपुंज को शोषित करने के लिए सिर के पीछे भामण्डल की रचना करते हैं । इसमें प्रभु का अतिशय तेज संहरित हो जाता है । तथा मुखाकृति सौम्य बन जाती है, जो सर्वदर्शन योग्य बन जाती है । अतः आभामण्डल के संहरण के लिए भामण्डल बनाते हैं ।
४) निरोगिता - परमात्मा जिस क्षेत्र - भूमि में रहते या विचरते हैं उसके चारों तरफ के सव्वासो योजन विस्तार में ज्वर, ताप आदि रोगों का शमन हो जाता है । और प्रजा में सर्वत्र निरोगिता फैलती है। रोगों का भारी- भयंकर उपद्रव नहीं बढता है ।
५) निर्वैरभाव - प्रभु जहाँ विचरते हो वहाँ चारों तरफ के सव्वासो योजन के क्षेत्र में जीवों के परस्पर वैर-वैमनस्य का शमन हो जाता है। किसी भी जीव का किसी के प्रति वैरभाव ही नहीं रहता है ।
६) सप्त इतियों का अभाव - प्रभु के विचरण की सव्वासो योजन की भूमि के विस्तृत क्षेत्र में कहीं भी सात इतियाँ नहीं होती हैं । १) धन-धान्य के लिए उपद्रवकारी चूहे, २) तीड, ३) कृमि, अनेक जीवों की उत्पत्ति आदि ।
७) मारी - मरकी उपद्रव का अभाव- मारी महामारी अर्थात् अकाल ही औत्पातिकी मृत्यु बडी संख्या में होनी या फिर ... महारोग प्लेग आदि महामारी का फैलना और हजारों की तादाद में लोगों का मरना ऐसी मारी या महामारी का उपद्रव प्रभु की विचरण भूमि में नहीं होता है ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा