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________________ २) वचनातिशय- वचन - - वाणी-भाषा को कहते हैं। देशना देते समय प्रभु की वाणी अत्यन्त मधुर मीठी लगती है । इक्षुरससी मधुर लगती है । कर्णप्रिय होती है । प्रभु प्राकृत भाषा में देशना देते हैं। जिससे सबको समान रूप से समझ में आ सके। प्रभु की वाणी पशु-पक्षियों को, देवताओं आदि को भी परिणमती है । सर्व गुण सम्पन्न वाणी आह्लाद करनेवाली, परिमित - सीमित शब्दोंवाली अगाध - अर्थगंभीरवाली वाणी सर्व कल्याणकारी होती है । दूर- सुदूर तक श्रवणग्राह्य रहती है। इसे दूसरा वचनातिशय कहते हैं । ३) अपायापगमातिशय- अपाय अर्थात् = = दुःख होता है । इसके अपगम = नाश को अपायापगम अतिशय कहते हैं । मोहनीय कर्म के संपूर्ण क्षय हो जाने से अब - द्वेषादि जन्य कोई भी दोष - दुःखरूप राग-द्वेष ही नहीं होता है । इसलिए कोई दुःख होता ही नहीं है । दुःखों के सर्वथा अपगम-नाश को अपायापगम अतिशय कहा है 1 राग 1 ४) पूजातिशय — “ देविन्दपूइयाणं” जैसे विशेषण पू. चिरन्तनाचार्यजी ने पंचसूत्र ग्रन्थ में दिये हैं। इससे देव-स्वर्ग - देवलोक के देवी-देवता तथा उसके भी इन्द्र- स्वामी मालिक है उनको देवेन्द्र कहते हैं । तीर्थंकर परमात्मा की पूजा - भक्ति देवेन्द्र भी करते हैं । सामान्य मनुष्य आदि तो प्रभु की पूजा भक्ति करते ही हैं । लेकिन् देवेन्द्रादि जो विबुध कहलाते हैं, विशिष्ट बुद्धिशाली ऐसे विबुद्ध देवता भी जिनकी पूजा - भक्ति करते हैं, वे परमात्मा सर्व जीवों के लिए भी पूजनीय बनते हैं । तीर्थंकर प्रभु का जब जन्म होता है । तब देवेन्द्र सौधर्मेन्द्र प्रथम देवलोक से आते हैं । ५ रूप बनाकर प्रभु को ग्रहण करके सुमेरु पर्वत पर ले जाते हैं । वहाँ ६४ इन्द्र तथा अन्य सभी देवतादि आते हैं । वे सभी परमात्मा का अभिषेक करते हैं । इस तरह १) भवनपति, २ ) व्यंतर, ३) ज्योतिषी, ४) तथा वैमानिक चारों निकाय के देवता जिनकी पूजा भक्ति करते हैं, जो परमात्मा उनके लिए पूजनीय बनते हैं वे सभी जीवों के लिए पूजनीय बनते हैं । इसलिए देवेन्द्र पूज्यपना यह पूजातिशय कहलाता है । वैसे यह अतिशय जन्म से भी होता है । परन्तु विशेष रूप से सर्वज्ञता प्राप्त होने पर ... देवता आकर समवसरण आदि की रचना करते हैं । अतिशय तथा प्रातिहार्यादि की रचना देवता ही करते हैं । तथा जघन्यरूप से भी करोडों की संख्या में देवता तीर्थंकर परमात्मा की सेवा भक्ति में उपस्थित रहते हैं। नौं स्वर्णकमलों की रचना कर प्रभु के पैर भी जमीन पर नीचे नहीं गिरनें देते हैं । इस तरह यह पूजातिशय एक मात्र तीर्थंकर परमात्मा ही होता है । ऐसे अतिशयों से सुशोभित परमात्मा की स्तुति - स्तवना - पूजना सभी विद्वानों ने की है । आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना १२५५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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