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________________ आभा भामण्डल में समा जाती है । और प्रभु की मुखाकृति सौम्य बन जाती है । जिससे सभी श्रोता गण के लिए यह सौम्य मुखाकृति दर्शनीय बनती है। ७) देव दुंदुभि- देवता गण गांवों-नगरों में चारों तरफ ग्रामवासियों को प्रभु देशना श्रवण करने पधारने के लिए बुलाने के लिए... दुंदुभि बजाकर उद्घोषणा करते हैं। यह इस प्रातिहार्य का अर्थ है । जैसे कि आज भी ढोल बजाकर घोषणा करने की पद्धति है । भेरी-भंभा आदि जैसा वाद्ययंत्र विशेष जिसे बजाकर देवता सबको संबोधित करते हैं । यह देवदुंदुभि नामक प्रातिहार्य है। ८) आतपत्र (छत्रत्रय) प्रातिहार्य- परमात्मा समवसरण में बिराजमान होते हैं तब देवता प्रभु के मस्तक पर ३ छत्र बनाते हैं । परमात्मा तीनों भुवन के अधिपति है यह त्रिभुवनपतिपना सिद्ध करने के लिए छत्रत्रय का प्रातिहार्य सूचक है । १) ऊर्ध्वलोक, २) अधोलोक, ३) तिर्छलोक इन तीनों लोक के जीव परमात्मा को मानते हैं । स्वीकारते हैं। जिससे तीर्थंकर भगवान तीनों भुवन में(३ लोक में) पूजनीय,माननीय, आदरणीय, स्वीकार्य होते हैं । इसी कारण आज भी सर्वत्र मंदिरों में तीर्थंकरों की मूर्ति के ऊपर छंत्रत्रय सर्वत्र रखे जाते हैं। ऐसे उपरोक्त अष्ट महाप्रातिहार्यों से तीर्थंकर प्रभु शोभायमान होते हैं । ये देवताओं द्वारा निर्मित हैं । जिसमें कारणभूत परमात्मा के तीर्थंकर नामकर्म का उदय है । तथा प्रभु के चारों घाती कर्मों का क्षय है। प्रभु को इन पर या किसी पर भी न तो राग है और न ही द्वेष है। सर्वथा राग-द्वेष रहित वीतराग है। किसी प्रकार का मोह न होते हुए भी देवता मात्र भक्तिवश होकर स्वेच्छा से करते हैं। ऐसे प्रातिहार्यों की रचना देवता भगवान के सिवाय अन्य किसी के लिए भी नहीं करते हैं। इसीलिए तीर्थंकरों के सिवाय कभी भी किसी के लिए भी इनकी रचना नहीं हुई है । इसलिए ये प्रातिहार्य तीर्थंकरों के गुणों की गणना में गिने जाते हैं। अन्य किसी के गुण आदि रूप में नहीं गिने जाते हैं। एक बात और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ये प्रातिहार्य संसार के किसी अन्य भगवानों के लिए हो ऐसा देखा भी नहीं जाता है। क्योंकि किसी भी धर्म ने अभी तक अपने भगवानों के लिए ऐसा वर्णन नहीं किया है । हिन्दु-मुस्लिम-या ख्रिस्ती धर्म में, धर्मशास्त्रों में वैसा वर्णन ही नहीं मिलता है । अतः किसी भी भगवान के लिए ऐसे अष्ट प्रातिहार्य नहीं होते हैं । ये एक मात्र जैन तीर्थंकर भगवान के लिए ही होते हैं । अतः इनके ही गुण रूप में इनकी गणना होती है । इसी कारण उपाध्यायजी म. कहते हैं कि १२५२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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