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________________ आयुष्य कर्म हैं, इनमें से एक मात्र नामकर्म की १०३ प्रकृतियों में इसका समावेश होता है। नामकर्म में शुभ पुण्य प्रकृतियाँ ..... हैं तथा ..... अशुभ पाप की प्रकृतियाँ हैं । इनमें से शुभ पुण्य प्रकृतियों में तीर्थंकर नामकर्म की सर्वश्रेष्ठ पुण्य प्रकृति का समावेश होता है । अतः इसके क्षय या क्षयोपशम से कोई तीर्थंकर नहीं बन सकता है लेकिन तीर्थंकर नामकर्म की इस पुण्य प्रकृति के उदय में आने पर, उदय होने पर ही कोई तीर्थंकर बन सकता है। यह सर्वोच्च कक्षा की पुण्य प्रकृति है। अतः पुण्य का कार्य वैभव सुख-सामग्री-सम्पत्ति देने का है। प्रत्येक जीवों को पुण्य उनके उपार्जित कर्मानुसार कम ज्यादा प्रमाण में सुख-सम्पत्ति-वैभव-साधन-सामग्री- यश–प्रतिष्ठादि प्रदान करता है। तीर्थंकर नामकर्म की यह सर्वोच्च कक्षा की पुण्य प्रकृति है । अतः इसके उदय से सर्वोच्च कक्षा का वैभवादि सब कुछ प्राप्त होता है । इसी पुण्योदय के कारण देवताओं का सेवा में आगमन, समवसरणादि बनाना, कुछ अतिशयों की प्राप्ति आदि प्रकृष्ट पुण्योदय प्राप्त होता है । इससे यह निश्चित होता है कि... तीर्थंकर बनने के लिए तीर्थंकर नामकर्म की पुण्यप्रकृति का उदय होना अत्यन्त आवश्यक है। तीर्थंकर नामकर्म का उदय ४,५ और ६ढे गुणस्थान पर होता है । ४,५ वे इन दो गुणस्थान पर आराधक श्रावक की कक्षा में गृहस्थ होता है । ४ थे गुणस्थान पर मात्र श्रद्धावान् श्रावक होता है, जबकि . . . ५ वे गुणस्थान पर व्रत-विरति, पच्चक्खाण धारक-आचरण करनेवाला श्रावक होता है । ये भी वीशस्थानक के २० पदों की आराधना करके तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन कर सकते हैं तथा आगे बढकर छठे गुणस्थान पर साधु बनते हैं। ऐसे श्रावक या साध-साध्वी उभयवर्गवीशस्थानक की साधना करके तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित कर सकते हैं । तदतिरिक्त १ ले, २ रे, या ३ रे गुणस्थान पर तीर्थंकर नामकर्म बांधा नहीं जाता है। इसी तरह ८ वे गुणस्थान से तो जीव, श्रेणी के श्रीगणेश करता है इसलिए चढती श्रेणी पर आरूढ आत्मा तीर्थंकर नामकर्म नया उपार्जित नहीं करती है, लेकिन पूर्व में उपार्जित नाम कर्म का १३ वे गुणस्थान पर उदय हो सकता है। अतः तीर्थंकर नामकर्म बांधनेवाले-नया उपार्जित करने के अधिकारी एक मात्र ४,५,६ढे गुणस्थान के अधिकारी श्रावक-श्राविका तथा साधु-साध्वीजी महाराज आदि ही हैं। अन्य कोई नहीं । प्रथम श्री भगवान से २४ वे तीर्थंकर भगवान तक के २४ ही भगवानों ने अपने पूर्व के भवों में कब कहाँ किस अवस्था में तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जित किया है यह उनके नामादि द्वारा दृष्टान्त देखने से स्पष्ट हो जाएगा। १२३८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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