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कर्मों का क्षय करने का काम अवशिष्ट रहता है तब तक उसका कार्य अधूरा ही रहता है । १२ वे क्षीण मोहनीय गुणस्थान पर भी कर्म की प्रकृतियों को क्षय करने का काम है ही । इसी तरह १३ वे गुणस्थान पर भी अघाती कर्म की प्रकृतियों को क्षय करने का काम रहता ही है । इसी तरह १४ वे गुणस्थान पर भी अल्प समय में भी कर्मक्षय करने का काम तो है ही । इस तरह अन्तिम गुणस्थान तक भी क्षपक साधक का कार्य तो रहता ही है । इसलिए क्षपक श्रेणी का कहीं कोई अन्तिम गुणस्थान पूछा ही नहीं जा सकता है । होता ही नहीं है । बस, अन्त में समस्त कर्मों का संपूर्ण क्षय हो जाता है और आत्मा मुक्त बन जाती है ।
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आप सोचेंगे १० वे गुणस्थान पर मोहनीय कर्म पूर्णरूप से समाप्त हो गया । फिर अब क्या करना है ? लेकिन ऐसा नहीं है । ८ कर्मों में से मोहनीय तो एक कर्म है । इसलिए शेष सभी कर्म तो उपस्थित हैं । अन्य ७ कर्म अभी और हैं 1 अभी ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीय जैसे भारी कर्म सत्ता में पड़े हैं, वहाँ तक तो केवलज्ञान - केवलदर्शन प्राप्त भी कैसे होंगे ? सवाल ही नहीं है । इनका क्षय १२ वे गुणस्थानवाले ने नहीं किया है, इसलिए वह साधक सर्वज्ञ नहीं, लेकिन छद्मस्थ ही कहलाता है । इसीलिए वीतराग छद्मस्थ नामकरण बडा ही सूचक नाम है । यही स्पष्ट करता है कि
राता का गुण जरूर प्राप्त किया है, लेकिन अभी तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं किया है, जहाँ तक ज्ञान-कर्म का क्षय नहीं हुआ है, वहाँ तक छद्यस्थता दूर नहीं होगी, रहेगी ही । जी हाँ, . . वीतरागता अपने आप में पूर्ण है । यह गुण पूर्ण संपूर्ण है, इसलिए इसमें किसी
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भी प्रकार के संदेह को अवकाश ही नहीं है। लेकिन जिसकी उपलब्धि ही नहीं हुई है उसका अभाव तो स्पष्ट कहा ही जाएगा । तो... हाँ ? अब उस साधक को करना क्या है? अपने नामकरण को देखें । और नाम में जो कलंक सूचक या (कमी) अपूर्णता का सूचक जो छद्मस्थ शब्द है, बस, यही शब्द क्या करना है इसका दिशानिर्देश स्पष्ट करता
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है । इसलिए वीतरागता जो प्राप्त हो चुकी है उसका संतोष जरूर है, लेकिन... जिसकी प्राप्ति अभी तक नहीं हुई है उसको प्राप्त करने के लिए ही प्रबल पुरुषार्थ करना है । १२ वे गुणस्थान पर वीतरागता प्राप्त होने से संतोष मानकर बैठे थोडे ही रहना है ? ऐसे बैठे रहने से कार्य कैसे चलेगा । वैसे भी साधक क्षपक वृत्तिवाला है । इसलिए प्रबल पुरुषार्थ करते हुए, अपूर्व आत्मवीर्य प्रगट करके कर्मरूपी वन का दहन करता हुआ आगे बढ रहा है । इसलिए विश्रान्ति आदि की तो आवश्यकता ही कहाँ रहती है ? और मान भी लो कि ... विश्रान्ति करे तो भी मात्र गिनति के समयों की ही हो सकती है। आखिर कुल मिलाकर १२ वे गुणस्थान का कार्य ही अंतर्मुहूर्त मात्र है । फिर ज्यादा का तो प्रश्न ही
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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