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पास भी ध्यानाग्नि का प्रबल साधन है । जिससे अल्प से अल्प समय में ज्यादा से ज्यादा कर्मों की निर्जरा होती है । क्षीण मोह में क्षीण शब्द क्षय- - संपूर्ण निर्जरा के अर्थ में है “ क्षीणो मोहो यस्य " संपूर्ण क्षय हो चुका है मोहनीय कर्म जिसका ऐसा, साधक क्षपक श्रेणी का क्षपक साधक कहलाता है । उपशम श्रेणीवाला कर्म की प्रकृतियों को शमाता है, दबा देता है । इसलिए उदय में असरकारकता दिखाई नहीं देती है । परन्तु सत्ता में पडी रहती है । इसलिए सत्ता में छिपी हुई प्रकृतियों का सोए हुए साँप की तरह विश्वास नहीं किया जा सकता । कब साँप उठे और कब काटे ? इसी तरह सत्ता में छिपी - दबी हुई कर्मप्रकृतियों का कब उदय हो और कब आत्मा को गिराए? कोई ठिकाना नहीं । अतः विश्वसनीयता नहीं रह सकती । इसीलिए उपशमवाला १२ वे क्षीण मोह गुणस्थान के सोपान पर पैर भी नहीं रख सकता । सवाल ही खड़ा नहीं होता है । तथा क्षपकवाला जडमूल से मोहनीय की प्रत्येक कर्म प्रकृति को खपाता है इसलिए अब मोहनीय का अंश भी सत्ता में नहीं रहता है । इसलिए क्षय करनेवाले के लिए ११ वे उपशान्त मोह गुणस्थान पर पैर रखने का कोई सवाल ही खड़ा नहीं होता है । यह नामुमकिन है । अतः सर्वथा मोहनीय कर्म के प्रत्येक अंश को जडमूल से क्षय करके अब १२ वे गुणस्थान पर मोहनीय कर्म से रहित वीतराग बना है ।
वीतरागतादि गुणों का आनन्द
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याद रखिए, समस्त अनन्त गुणों का मूलभूत खजाना तो एक मात्र आत्मा ही है । कर्म के घर में एक भी गुण नहीं रहता है । या कर्म के उदय से आत्मा को एक भी गुण उदय में नहीं मिलता है । कर्म क्या देगा ? कहाँ से देगा ? सवाल ही नहीं खडा होता है । 'कर्म के पास कोई रत्तीभर भी गुण नहीं है, यह तो जड मात्र है । जड भौतिक पौगलिक परमाणुओं का बना हुआ पिण्ड मात्र है । यह तो गुणघातक है आत्मगुणों का आवरक आच्छादक है । आत्मा के समस्त गुणों को दबाकर रखनेवाला, ढककर रखनेवाला ही कर्म है । अतः कर्म कोई गुण देता है यह विचार भूल से भी मत करिए। तो फिर वर्तमान में जीवों के व्यवहार में क्षमा-समता-नम्रता - सरलता - संतोष - दया- करुणा आदि गुणों का प्रगटीकरण कहाँ से होता है ? आत्मा तो (हमारी) आज भी कर्मग्रस्त है ही । फिर इतने गुण कहाँ से आए? इस प्रश्न के उत्तर में स्पष्टीकरण इतना ही है कि ... गुण तो सभी मूलभूत आत्मा के ही है इसमें रत्तीभर भी सन्देह मत रखिए। और मोहनीय कर्म ने ८०% सभी गुणों को दबा दिये है । इस मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियाँ हैं । अतः सबसे
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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