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________________ हमारा धर्म है । वे धर्मी थे अब हमें धर्म का आचरण करके धर्मी बनना है। सही अर्थ में यही श्रेयस्कर मार्ग है जिस मार्ग पर चलकर एक पामरात्मा परमात्मा बनी है। यही विकास का मार्ग है, यह प्रमाणित हो चुका है, उनके परमात्मा बनने से । हम भी पामरात्मा ही हैं। कर्माधीन ही हैं। और हमें भी हमारी पामरता दूर करनी ही है, किसी भी तरह निकालनी ही है । अतः उनके उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करके परमात्मा बनना ही उपने विकास का अन्त है। विकास की प्रारंभिक अवस्था का जीव निगोद में पड़ा है। एक निगोद के गोले में जहाँ अनन्तानन्त जीव भरे पड़े हैं। उनमें से एक जीव बाहर निकलता है और ८४ लक्ष जीवयोनियों रूपी उत्पत्ति स्थानों में जन्म धारण करते हुए चारों गति के संसार चक्र में परिभ्रमण करता हुआ विकास की दिशा में आगे बढता है । पामरता की सर्वथा प्राथमिक कक्षा यही है। वैसे तो जहाँ तक जीव परम नहीं बन जाता है वहाँ तक पामर ही रहता है। परमता की प्राप्ति यही पामरता का अन्त है और पारमता यही परमता ही अभावसूचक अवस्था है । वैसे दोनों ही आत्मा की पर्याय मात्र हैं । अशुद्ध कर्मजन्यावस्था ही पामरात्मा की पर्याय है और कर्मजन्य अशुद्धि से रहित संपूर्ण शुद्ध पर्याय ही परमात्म पर्याय है। दोनों आत्मा की ही पर्याय है। द्रव्यत्व समान होते हुए भी पर्याय भेद है ही। इस पर्याय भेद को सर्वथा मिटाकर अभेदावस्था प्राप्त करना ही विकास की पूर्णता-समाप्ति है। विकास का प्रारम्भ भी है अतः अन्त भी है । पूर्णता है । इसी पूर्णता की दिशा में प्रयाण करना ही अपूर्ण का कर्तव्य है । धर्म है। इस आध्यात्मिक विकास की यात्रा के स्वरूप को प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से हम समझते आ रहे हैं। अब तक का जो विकास का स्वरूप समझा वह उत्थान और पतन मिश्रित स्वरूप था। इसमें उत्थान भी था और पतन भी संभव था । उपशमश्रेणी के उत्थान की प्रक्रिया में तो पतन संभव तो क्या निश्चित ही था। अनिवार्य ही था। भवक्षय और कालक्षय इन दोनों निमित्तों को प्रबल निमित्तंभूत बताया गया है पतन में । जबकि सबल कारणभूत तो उपशान्त-दबे हुए कर्मों का उदय था। अतः विकास हुआ जरूर लेकिन संभ्रान्त विकास था । भ्रमपूर्ण था । आखिर उपशम श्रेणी करके भूल ही हुई है । कर्मों को जडमूल से क्षय करना था इसके बदले साधक ने कर्मों की प्रकृतियों को दबा दिया । शमा दिया। आखिर आग तो आग ही है । दहनशीलता का दाहक स्वभाव उसका है ही। चाहे प्रमाण में थोडीसी ही हो या अधिकतर हो । प्रज्वलित स्वरूप तो दाहक ही है । इसी तरह कर्म तो मारक ही है। चाहे जिस स्वरूप में भी हो कर्म तो मारक है ही। छोटी सी भी आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना .११८५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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