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अध्याय १७
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
संसार में आत्मा ही एक मात्र चेतन द्रव्य है । ऐसी अनन्त आत्माएँ हैं। छोटे-बडे दीपक की तरह अनन्त चेतनाएँ संसार में सदाकाल टिमटिमाती रहती हैं । आत्मा स्वयं एक अखण्ड - असंख्य प्रदेशी द्रव्य है । यह अनुत्पन्न - अविनाशी है । अतः त्रिकाल शाश्वत चेतन पदार्थ है । अदाह्य- अकाट्य - अछेद्य - अभेद्यादि अनेक विशेषणों से युक्त यही एक द्रव्य है । अनन्तकालीन है। संसार में भी अनन्तकाल से कर्माधीन स्थिति में चारों गतियों में जन्म-मरण धारण करती हुई, जीवन यापन करती हुई ८४ लक्ष जीवयोनियों में षरिभ्रमण करती हुई काल व्यतीत करती है । समुद्र की लहरों की तरह संसार समुद्र की चारों गतियों में कर्म की थपेडें खाती हुई सुख-दुःखों का अनुभव करती हुई अनन्त बार नरक गति में भी गई। वहाँ नारकी का जन्म लेकर अनन्त बार शरीर के अंगोपांगों का छेदन - भेदन दाहन - ताडन - मारण हुआ है फिर भी इस शाश्वत नित्य द्रव्यरूप आत्मा नामक द्रव्य के असंख्य प्रदेशों में से एक प्रदेश भी खंडित नहीं हुआ । बिखरा भी नहीं । अलग भी नहीं हुआ । जन्म-मरण के संयोग-वियोग की प्रक्रिया में मात्र उत्पत्ति-विनाश की कर्माधीन प्रवृत्ति के कारण अनित्य लेकिन स्व-स्वरूप से सदा नित्य - इस तरह नित्यानित्य स्वरूपधारी आत्मा ही अपना विकास साधती हुई विकास की दिशा में आगे बढती है ।
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संसार की निम्नतम श्रेणी की आत्मा को पामरात्मा कहते हैं । और विकास का जहाँ अन्त आ जाता है उस चरम स्वरूप को परमात्मा कहते हैं ।
१) पामर + आत्मा = पामरात्मा
२) परम + आत्मा = परमात्मा ।
इन दोनों विशेषणों में विशेष्य रूप आत्म द्रव्य दोनों में समान ही है, एक ही है । परन्तु संख्या में आत्मा संसार में एक ही नहीं अनन्त हैं। गुण-धर्मों की दृष्टि से समान
आत्मिक विकास का अन्त आत्मा से परमात्मा बनना
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