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________________ जी हाँ, महाविदेह क्षेत्र में वहाँ तो सब प्रकार की अनुकूलता सदा काल रहती है। क्यों कि, वहाँ तो सदा काल चौथा आरा रहता है । सदाकाल तीर्थंकर परमात्मा विद्यमान होते हैं। गणधर, केवलज्ञानी, सर्वज्ञादि सदाकाल रहते हैं । इसलिए महाविदेह जैसे क्षेत्र में तो हमेशा ही श्रेणी का प्रारंभ आदि हो सकता है । मोक्ष में भी रोज जा सकते हैं। ___रही बात यहाँ के भरत क्षेत्र की ... यहाँ महाविदेह से विपरीत स्थिति है । सदा काल चौथा आरा नहीं रहता है, अतः काल-आरा परिवर्तनशील है । ६-६ १२ ही आरे बदलते हुए आते ही रहते हैं । ५ वे आरे के कलिकाल में वर्तमान में कोई तीर्थकर, कोई गणधर, कोई केवलज्ञानी सर्वज्ञ नहीं होते हैं। लेकिन साथ ही साथ आंतरिक भी देखा जाय तो वैसा संघयण-संस्थान-बलादि जो आवश्यक सामग्री है उसकी भी उपलब्धि नहीं है । अतः वर्तमान काल में श्रेणी आदि की कोई संभावना ही नहीं है। इस तरह ऊपर से नीचे उतरते क्रम से देखेंगे तो ऊपर ऊपर के गुणस्थान पर कम से कम संख्या होती है फिर नीचे-नीचे के गुणस्थान पर जीवों की संख्या बढ़ती ही जाती है। और इससे विपरीत... नीचे-नीचे के गुणस्थान पर ज्यादा-ज्यादा संख्या जीवों की होती ही है वह ऊपर-उपर चढते-चढते कम-कम होती ही जाती है । १ ले, ४,थे५ वे, और छठे बस इन ४ गुणस्थानों पर ही सबसे बड़ी संख्या मिलेगी। आज के वर्तमानकाल में छठे गुणस्थान से आगे तो अरबों में भी कोई १ निकलना भी दुर्लभ सा लगता है। शायद १-२ कोई मिल भी जाय यदि अरबों में भी १ तो भी ७ वे से आगे ८ वे गुणस्थान पर और ८ वे से आगे तो सर्वथा जीरो ही रहेंगे। ___अब जो १,४,५ और ६ इन चार गुणस्थान पर जो संख्या वर्तमान काल में उपलब्ध होगी उनमें भी अनन्तगुनी ९९% सारी संख्या १ ले मिथ्यात्व के गुणस्थान पर ही है। मुश्किल से बची हुई १% संख्या में शायद सम्यक्त्वी जीव होंगे। इनमें से भी मुश्किल से चौथा भाग या १० वाँ भाग ५ वे गुणस्थान पर बारह व्रतधारी श्रावक देशविरतिधर होंगे । और उस १% की भी शायद-१००% सौ वां भाग ही छठे गुणस्थान पर श्रमण सर्वविरतिधर होंगे और साधुओं में भी अप्रमत्त सातवे गुणस्थान के साधक ढूँढने निकले तो शायद पूरी दुनिया के अरबों लोगों में मुश्किल से कोई १ या २ गिनती के निकल पाएं । शायद यह भी संभावना रखनी या नहीं? परन्तु इससे भी आगे के ८ वे गुणस्थान पर श्रेणी आदि की बात की तो संभावना ही नहीं है । निषेध ही है, अतः दूसरा आगे का तो विचार ही नहीं करना चाहिए। क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण १९७९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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