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मिश्रवस्था ३ रे गुणस्थान की है और तीसरी शुद्धावस्था यह चौथे गुणस्थान की सम्यक्त्व की है।
चाहे धान्य की भी उपमा लीजिए तो भी उपरोक्त तीनों अवस्था स्पष्ट होगी। इस तरह दर्शनमोहनीय कर्म की इन ३ प्रकार की प्रकृतियों के कारण जीव भी ३ प्रकार की वृत्ति-विचारणावाले रहते हैं । वे उपरोक्त ३ गुणस्थान पर रहते हैं । दृष्टान्तों से उन कक्षा के जीवों की पहचान स्पष्ट हो सकती है। हमारे लिए उन वृत्तिवालों को पहचानना आसान होगा।
मीसा न राग-दोसो, जिण-धम्मे अंतमुहु जहा अन्ने ।
नालियर-दीव-मणुओ, मिच्छं जिण-धम्म-विवरीअं ॥१६॥ प्रथम कर्मग्रन्थकार मिश्र मोहनीय को समझाने के लिए नारिकेलद्वीप का दृष्टान्त देते हैं। ऐसा द्वीप जहाँ अनाज पैदा ही न होता हो, एकमात्र नारियल का फल ही पैदा होता है । उस द्वीप के लोगों ने नारियल के फल के सिवाय न तो कभी कुछ देखा है और न ही कुछ खाया है । बस, एकमात्र नारियल के फल ही खाए हैं । ऐसे में यदि उन्हें किसी प्रकार कां अन्न लाकर खाने दिया जाय तो उनको अन्न के प्रति न कोई विशेष राग होगा और न ही द्वेष । ठीक उसी तरह ३ रे मिश्रगुण वर्ती जीव को जिन-सर्वज्ञ के धर्म के प्रति न कोई विशेष राग रहता है । या न कोई विशेष द्वेष रहता है । उसी तरह छद्मस्थ प्ररूपित मिथ्या धर्म के प्रति भी विशेष कोई राग-द्वेष-रुचि-अरुचि कुछ भी नहीं रहती। ऐसे मिश्रमोहनीय गुणस्थानवी जीव होते हैं । इसका भी काल उत्कृष्टरूप से अंतर्मुहूर्त मात्र ही है। यहाँ आधी श्रद्धा भी रहती है और आधी मिथ्यात्व की वृत्ति । इस तरह दोनों मिश्रभाव की स्थिति रहती है । यह ३ रे गुणस्थानवाला जीव सकल या देश संयमादि कुछ भी ग्रहण नहीं करता है । अर्धविशुद्ध-आधी श्रद्धा आधी अश्रद्धा का जो मिश्रस्वभाव है वह अंतर्मुहूर्त की काल अवधि पूर्ण होने के पश्चात् शुद्ध या अशुद्ध किसी एक पुंज का उदय होने पर वहाँ जाता है । अर्थात् या तो मिथ्यात्व अशुद्ध पुंजवाले १ ले गुणस्थान पर जाय, या फिर.. शुद्ध पुंजवाले ४ थे सम्यक्त्व के गुणस्थान पर जाय । इस तरह यहाँ से १ ले या ४ थे दोनों गुणस्थान पर साधक जा सकता है। और १ ले और ४ थे दोनों गुणस्थान पर से आ भी सकता है। इस तरह यहाँ गमनागमन १ ले ४ थे से और पर है। यहाँ पर छहों लेश्याएं होती हैं । इस ३ रे गुणस्थान पर चारों गति के जीव रहते हैं । अतः असंख्य की संख्या में जीव इस गुणस्थान पर होते हैं । अतः अल्पत्व में ८ वे तथा बहुत्व
१९७०
आध्यात्मिक विकास यात्रा