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________________ है। गर्भ में भी माता के मल-मूत्रादि के अंगों के बीच साडे नौं महीने तक उल्टे सिर लटकता रहा। मानों कोई भारी सजा भुगतता हो। फिर मृत्युतुल्य असह्य वेदना भोगता हुआ जन्म लेकर धरती पर आया, अपने ही मलमूत्र में खेल कूद कर बडा बना । जिन अंगो से स्तनपान कर दूध पीकर जिन्दा रहा, बडा बना, अब उन्ही अंगों के प्रति राग भाव-मोहभाव से अपनी वासना संतोषता रहा। जिन जननांगों से जन्म लेकर अंधेरी काली कोठडी की सजा से मुक्त होकर धरतीपर आया, बस बडा होकर आज अनेक स्त्रियों के गुप्तांगों के प्रति विकृत वासना का राग बढाकर अपनी हवसवृत्ति संतोषने के लिए पुनः पागलपन दिखाता है । बस, सिर्फ ऊपर सजी हुई इस गोरी चमडी को देखकर मोहित होता है लेकिन उसे यह पता नहीं है कि...दिखाई देती रूपरंगवाली इस गोरी चमडी को कुछ क्षणभर के लिए भी हटाकर देखा जाय तो कैसा रूप दिखाई देगा? देख नहीं पाओगे। चकरा जाओगे। क्यों? क्या है इस चमडी के नीचे । गलीचे से शोभा अच्छी लगती है लेकिन गलीचे के नीचे की गद्दी तो बच्चे की पिशाब की हुई ही है। वैसे यह काया मल-मूत्र-दुर्गंध से भरी हुई है । जिन गुप्तांगों आदिपर मोहित होता है वे भी दुर्गंध और अशुचि के स्राव से मलीन है । मांस-रक्त-रुधिर-मज्जा-हाडपिंजर आदि का भयावह स्वरूप चिन्तन करते हुए, तथा रोगादि जन्य विचित्र स्थिति का विचार करते हुए अशुचि भावना का चिन्तन करके इस मन को काया की माया पर से हटा लेना चाहिए। ७) आश्रव भावना समुद्र में तैरते पोत में जैसे छिद्र हो जाय और उसमें से जैसे पानी आता ही रहे तो जहाज डूब जाता है, ठीक उसी तरह पाँचों इन्द्रियों, मन, वचन और काया के छिद्रों से कषायादि कारणों द्वारा कर्माणु आत्मा में प्रवेश करते ही रहें तो आत्मा इस संसार के भंवर में डूब जाती है । इन्द्रियों के विषय भोगों की रुचि, अव्रतादि के कारण हिंसादि १८ पापों की प्रवृत्ति, क्रोधादि भाव जन्य सभी कषायों का सेवन, योगादि मन-वचन-काया द्वारा पापों का आगमन यह आश्रव स्वरूप है। शुभाशुभ दोनों ही आश्रव आत्मा का पतन करते हैं। इस तरह आश्रव भावना का चिन्तन करके उससे कैसे बचना इसका उपाय ढूँढना चाहिए । तथा समस्त जगत् के समग्र जीव इसी के आधीन होकर आश्रव मार्ग में फसे हुए रहकर संसार बढाते रहते हैं। आध्यात्मिक विकास यात्रा १०८६
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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